केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए जल्दबाजी में संसद में एससी-एसटी संशोधन बिल पास करवा दिया। सरकार के इस कदम से अगड़ी जातियों में भारी नाराजगी है। इस फैसले के विरोध में अगड़ी जातियों ने पहली बाद एकता का परिचय दिया है। अगड़ी जातियों के इस रुख केंद्र सरकार सकते में है। इसका असर आज देश भर में दिखाई भी दे रहा है। सवर्णों का सरकार पर आरोप है कि सरकार के इस कदम से एससी/एसटी एक्ट के दुरुपयोग की घटनाएं और ज़्यादा बढ़ जाएंगी। मोदी सरकार के विरुद्ध यह नाराजगी धीरे-धीरे आंदोलन का रूप लेने लग गई है। इसका नुक्सान भाजपा को तत्काल मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनावों के साथ-साथ 2019 के लोक सभा चुनाव में भी उठाना पड़ सकता है।
इससे पहले अगस्त में सवर्णो के भारत बंद के दौरान बिहार के पटना, गया, बेगूसराय नालंदा आदि कई जिलों में सवर्ण 10 और 30 अगस्त को सड़कों पर उतरे। कई स्थानों पर पुलिस पर हमला भी हुआ और पथरबाजी की घटनाएं भी हुई। इसी तरह मध्य प्रदेश में दो सितंबर को भोपाल में सीएम शिवराज सिंह चौहान के ऊपर भरी सभा में जूता फेंका गया। उनके काफिले के ऊपर पत्थर फेंके गए। काले झंडे दिखाए गए। राजस्थान में चार सितंबर को जयपुर में इस कानून के विरोध में परशुराम सेना रैली निकाली गई। उत्तर प्रदेश में कई जिलों में भी इस कानून के विरोध में छोटे-छोटे विरोध प्रदर्शन जारी हैं।
2014 में भाजपा को 47 फीसदी सवर्णों का वोट मिला था। जबकि 2009 में सिर्फ 29 फीसदी सवर्णों ने भाजपा को वोट दिया था। 2014 में एनडीए को 56 फीसदी सवर्णों का वोट मिला। 2009 के मुकाबले 30 फीसदी ज्यादा सवर्णों के वोट मिले। सवर्णों के आंदोलन से साफ है कि भाजपा शीर्ष नेतृत्व केवल वोट के लिए राजनीति से बाज नहीं आई तो पार्टी के लिए 2019 में जीत हासिल करना मुश्किल भरा हो सकता है। ऐसा इसलिए अल्पसंख्यक और दलित पार्टी से पहले से ही नाराज चल रहे हैं। ऐसे में सवर्णों का रुठना पार्टी को भारी पड़ सकता है। आपको बता दें कि अगड़ी जातियां हमेशा से ही भाजपा की प्रमुख समर्थक रही हैं। लेकिन 2009 के लोक सभा चुनाव में अगड़ी जातियों ने भाजपा से नाता तोड़ कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों की तरफ रुख कर लिया था। 2013 में जब भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया तो अगड़ी जातियां फिर से भाजपा की तरफ आ गई।