दरअसल, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एक तेजतर्रार राजनेत्री हैं। उन्होंने राजनीति की ए,बी, सी… कांग्रेस से सीखी है। कांग्रेस में अपनी अलग पहचान बनाने के लिए पश्चिम बंगाल में वामपंथी राज से लोहा लिया। बहुत कम लोगों को याद होगा कि वामपंथियों के खिलाफ कांग्रेस का झंडा बुलंद करने वालों में सबसे आगे रही हैं। उन्होंने ज्योति दा के शासनकाल में कोलकाता की सड़कों पर डंडे खाए। कई बार तो पुलिस ने उन्हें महिला प्रदर्शनकारी होने के बावजूद नहीं बख्शा और सड़कों पर लिटाकर पीटा। ममता उसी संघर्ष से उपजी राजनेत्री हैं। लेकिन कांग्रेस ने इस महिला नेत्री को तवज्जो नहीं दी और उन्होंने एकला चलो की राह पकड़ कांग्रेस और वामपंथ दोनों का पश्चिम बंगाल से सफाया कर दिया। अब वही ममता तेलांगना के मुख्यमंत्री केसीआर के आह्वान पर पीएम मोदी के खिलाफ थर्ड फ्रंट की बात करती हैं जो कांग्रेस को हजम नहीं है। इस दिशा में उनकी सक्रियता सीधे तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की दावेदारी को चुनौती है। बस, इतनी सी बात है कि सोनिया ममता से अपनापन महसूस नहीं करती हैं।
आपको बता दें कि 2014 लोकसभा चुनाव में भाजपा ने बसपा, कांग्रेस और सपा तीनों का सफाया कर दिया था। 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने तीनों को एक और बड़ा झटका दिया। यूपी विधानसभा चुनाव का परिणाम बसपा और सपा के लिए अस्तित्व के संकट का सवाल हो गया है। पहचान को बनाए रखने के लिए बुआ-बबुआ एक हो गए हैं। गोरखपुर और फुलपुर उपचुनाव के बाद कांग्रेस ने भी यूपी में एक साथ मिलकर चुनाव लड़ने का मन बना लिया है। लेकिन अब इस राह में सपा नेता अखिलेश यादव का हालिया बयानों ने राहुल और माया को सावधान कर दिया है। अखिलेश ने कहा था कि 2019 में चुनाव में पीएम मोदी हारते हैं तो नेताजी यानी मुलायम सिंह यादव भी पीएम मैटीरियल हो सकते हैं। उनका यह बयान राहुल गांधी के उस बयान का जवाब था जो उन्होंने कर्नाटक में पीएम की दावेदारी पर मीडिया के सवालों के जवाब में दिया था। ये बातें बसपा प्रमुख मायावती को भी हजम नहीं हुई होंगी। बस, उसी का जवाब सोनिया ने विपक्षी एकता के मंच पर ममता और अखिलेश दोनों को दिया है। मायावती के लिए सोनिया से नजदीकी दिखाने का एक कारण यह भी है कि पीएम मोदी की सरकार चीनी मिलों के बिक्री मामले में सीबीआई को उनके पीछे लगा दिया है।
देश भर में दलित हितों को आंदोलन परवान चढ़ा है। कांग्रेस के पास दलितों के नाम पर मजबूत नेता का सख्त अभाव है। एक ऐसा दलित नेता जो माया, रामविलास पासवान, रामदास अठावले,जीतनराम मांझी, ओमप्रकाश राजभर जैसा कोई नेता हो। दूसरी बात ये भी है कि दलित हितों के नाम पर राहुल गांधी ने पीएम मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। इसलिए भी कांग्रेस को माया की जरूरत है। या आप यूं कहें कि दोनों को लोकसभा चुनाव तक एक-दूसरे की जरूरत है।
आपको बता दें कि जनविरोधी नीतियों और योजनाओं का विरोध होना लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए आवश्यक है। लेकिन विपक्षी दलों का सिर्फ मोदी विरोध के नाम पर एक होना किसी भी तरह से नीतिगत नहीं है। लेकिन मोदी विरोध का आलम यह है कि केंद्र सरकार कितनी भी अच्छी नीतियां देशहित में क्यों न बना लें, विपक्ष उसके विरोध में हो-हल्ला करता ही है। गलत नीतियों, विचारों का विरोध तो जरूरी है, लेकिन हितकारी नीतियों पर जबरदस्ती विरोध कर देशहित को नुकसान पहुंचाना समझ से परे है। सात अगस्त को जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट में लिखा था कि विपक्ष की एकता एक मिथक है और 2019 में फिर भाजपा की सरकार बनेगी।