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खेल हित पर हावी

वैसे तो भारतीय क्रिकेट बोर्ड अन्य खेल महासंघों की तुलना में कहीं ज्यादा लोकतांत्रिक और पारदर्शी रहा है। फिर भी जहां उसे होना चाहिए, जिस तरह से उसे कामकाज करना चाहिए, वो नहीं कर पा रहा है।

रायपुरOct 05, 2016 / 05:58 am

balram singh

team india

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खेल जगत में सभी को इंतजार है कि छह अक्टूबर को ऊंट पहाड़ के नीचे आएगा कि नहीं? न केवल बीसीसीआई (क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड) बल्कि देश के सभी खेल महासंघ व खेल प्रेमियों की निगाहें लोढ़ा कमेटी की संस्तुतियों पर सुप्रीम कोर्ट के आने वाले अंतिम आदेश पर हैं। 
इसमें दो राय नहीं है कि भारतीय क्रिकेट बोर्ड अन्य खेल महासंघों की तुलना में कहीं ज्यादा लोकतांत्रिक और पारदर्शी रहा है। फिर भी जहां उसे होना चाहिए, जिस तरह से उसे कामकाज करना चाहिए, वो नहीं कर पा रहा है। सच तो यह है कि बीसीसीआई हठधर्मिता का शिकार हो चुका है। 
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद गठित लोढ़ा समिति ने जब संस्तुतियां दी थीं उनमें प्रमुख बातें थीं- एक राज्य, एक वोट, चयनसमिति 5 के बजाय 3 सदस्यीय लेकिन देखिए, बोर्ड का अहंकार। पिछले दिनों साधारण सभा की बैठक के दौरान जो कुछ किया, वो विशुद्ध रूप से सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के दायरे में आता है। संस्तुतियों को लागू करने की अंतिम तिथि 30 सितंबर थी और पहले तो सबसे बड़ी अवमानना यही थी कि उस तारीख तक कुछ भी लागू नहीं हुआ और दूसरी ओर देश के सुप्रीम कोर्ट को भी क्रिकेट बोर्ड ने अपने मनमाने फैसलों से आंखे तरेर दीं। 
देश के सिर्फ दो राज्य क्रिकेट संघ-विदर्भ और त्रिपुरा ने ही संस्तुतियों को शत प्रतिशत लागू किया। शेष सभी राज्य संघ इंतजार कर रहे हैं कोर्ट के जोरदार ‘तमाचे’ का। बीसीसीआई बनाम लोढ़ा समिति के बीच जो कुछ हुआ है, उससे साफ हो गया है कि हमारे देश के खेल संघ खुद को सर्वोपरि समझते हैं। 
खेल विधेयक की देश में चर्चा उठती रही कि खेल संघों की सफाई कैसे हो, खेलों को कैसे सुधार जाए? यूपीए सरकार में खेल विधेयक लाने की सोची गई तो कई मंत्रियों की कुर्सी चली गई। खेल संघों सरकार की मदद तो चाहिए पर सरकार को पैसे का हिसाब नहीं देंगे। सरकार को ही गुर्राते हैं। असल में यह गुर्राहट के पीछे कोई प्रभावशाली चेहरा होता है। कोई बड़ा राजनेता होता है। फिर सरकार खामोश हो जाती है। 
भारतीय क्रिकेट बोर्ड भारत सरकार का मुखापेक्षी नहीं रहा, यह तो सच है। अन्य खेल महासंघों की तरह से वह सरकारी खर्च पर नहीं चलता। यहां तक तो स्थिति ठीक है लेकिन बीसीसीआई की जो कार्यशैली है, वह केंद्र में तो ठीक है लेकिन राज्य क्रिकेट संघों पर नजर डाली जाए तो अन्य खेल महासंघों की तरह ही वहां भी पूरे कुएं में भांग पड़ी है। 
जब बोर्ड की स्थापना हुई थी तो उस समय ये क्रिकेट इकाइयां बनीं पर इन्हें आजादी के बाद बरकरार रखने का कोई औचित्य नहीं था। देखिए, तुलनात्मक रूप से गुजरात जैसे छोटे राज्य की ही तीन क्रिकेट इकाइयां हैं। गुजरात, सौराष्ट्र, वडोदरा। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश के सभी जिलों में क्रिकेट संघ तक नहीं है। 
यूपी रणजी टीम में समस्त प्रदेश का प्रतिनिधित्व कभी नहीं होता। और बिहार में तो क्रिकेट संघ को मान्यता ही नहीं है। पूर्वोत्तर के राज्यों को देखें तो असम और त्रिपुरा को छोड़कर बाकी राज्यों को तरजीह नहीं मिलती। 
अन्य खेल संघों की बात करें तो उनमें पूरे देश का प्रतिनिधित्व होता है। पर इस दावे पर बीसीबीआई खरा उतरती है? कतई नहीं। जहां तक पदाधिकारियों की बात है तो बड़़ेे राजनेता और खुद मंत्री ही सर्वोच्च पदों पर बैठे रहते हैं। चाहे खुद अनुराग ठाकुर हों, शरद पवार हो, राजीव बिस्वाल हो या राजीव शुक्ला और कितने ही ऐसे नेता क्रिकेट में बड़े पदों पर काबिज हैं। 
सुप्रीम कोर्ट ने सही ही कहा कि सरकारी अधिकारी और राजनेता खेलों में पदाधिकारी नहीं हो सकते। इसमें क्या गलत है? चाहे किसी पदाधिकारी की उम्र 70 साल से ज्यादा न होने की बात हो, या अधिकतम 9 बरस की कार्यकाल की बात, ये सभी फैसले खेल हित में होने चाहिए। क्रिकेट बोर्ड का कामकाज पारदर्शी होने चाहिए। 
लोढ़ा समिति की संस्तुतियां खेल हित में हैं। पर देखिए, किस तरह से बीसीसीआई सुप्रीम कोर्ट के सामने आ खड़ी हुई। अपनी पिछली बैठक में बीसीसीआई ने वो सारे धत कर्म किए, जो जायज नहीं हैं। लोढ़ा समिति की संस्तुति है कि पांच की बजाय तीन चयनकर्ता ही हों, पर इसे नहीं माना गया। 
यह कहा गया था कि चयनकर्ता अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटर रहा हो। पर गगन खोड़ा और जतिन परांजपे के रूप में ऐसे चयनकर्ता चुने, जिन्होंने कभी टेस्ट क्रिकेट का मुंह ही नहीं देखा। लोढ़ा ने कहा कि जो पैसे बोर्ड राज्य इकाइयों को भेजता है, उसकी ऑडिटिंग हो पर इस संस्तुति की भी अनदेखी करते हुए पिछली बैठक में 25 राज्य इकाइयों को फंड आवंटित कर दिया। यानी बोर्ड ने लोढ़ा कमेटी की संस्तुतियों को खुलेआम नजरअंदाज कर दिया। यह अति थी। सुप्रीम कोर्ट को पिछली सुनवाई में कहना पड़ा कि आप सुधर जाएं वरना हम सुधार देंगे।
वैसे तो भारतीय क्रिकेट बोर्ड अन्य खेल महासंघों की तुलना में कहीं ज्यादा लोकतांत्रिक और पारदर्शी रहा है। फिर भी जहां उसे होना चाहिए, जिस तरह से उसे कामकाज करना चाहिए, वो नहीं कर पा रहा है। सच तो यह है कि बीसीसीआई हठधर्मिता का शिकार हो चुका है। 

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