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रायपुर

अंधियारी अंजोरी के फेर म छत्तीसगढ़ी साहित्य

छत्तीसगढ़ी साहित्य ह चार बर दरपन बन सकै

रायपुरMar 06, 2019 / 07:29 pm

Gulal Verma

cg news

अंधियारी अंजोरी के फेर म छत्तीसगढ़ी साहित्य

नदी ह अपन जलधार ल लेके पहार अउ कछार के टेडग़ा-बेडग़ा रद्दा मं कुदत-फांदत देखइया तक पहुंच जाथे। नदी ह तको मनढेरहीन होतिस त लोगन तो पियासेच मर जातीन। जब नदी ह आगु गोति बोहाथे त हमू ल ओकर तीर जाके ओकर परमारथ ल जानना समझना चाही। भासा बोली भले अपन हो जाय, फेर साहित्य तो सबके होथे। सूरूज अउ चंदा के अंजोर कस साहित्य के अंजोर तको बगरना चाही, तभे साहित्य ह समाज के दरपन हो पाही। कलम के कलाकारी तो ये होथे के लेखन मं सार ल सोच-सोझ नइ लिखके वोला इसारा मं कहे जाय, जेमा लिखइया अउ पढ़इया दूनों के समझ साझा हो जाय। जम्मो भारतीय भासा मं एक ले बढ़के एक कथा साहित्य रचे जावत हे। भारतीय ज्ञानपीठ के किताब ल बिसाके, पढञके बड़े-बड़े बात ल समझे जा सकते हे के हम कोन ठऊर आज खड़े हन। चेत करके, हिसाब जब लगाबो, तब पता चलही के हमन एक दून नइ पचास बरीस पाछू चलत हन। हमर तइहा के चेतलग कवि-लेखक मन काबर घी-पीये चुपचाप बइठे रहिगे, के आज इन दूसर भासा साहित्य के सम मं नजर मिलाये के हिम्मत नइ कर पात हन। कोनो परदेसी ल तो पाछू पढ़ा लेबे पहिली छत्तीसगढ़ी ल छत्तीसगढिय़ा मन ल धाराप्रवाह पढ़ा के तो देखे जाय।
छत्तीसगढ़ी म सरलग पेपर अउ पतरिका लिकाले के तब ले जरूरत रिहिस हे, जब ले अलग राज बर बीस-तीस बरिस पहिली जन आंदोलन के सुरुआत होये रिहिस। जपर्रा कुंभकरन मन के नींद ह नवा राज के राजनर्तकी के घुंघरू ल सुने के बाद टूटिस, तभे तो झकनाके सब उठिन अउ अब भासा-बियाकरन अउ सब्दकोष ल आंय-बांय बर्रावत हें। अभी तको जादा अंधेर नइ होये हे। बेरा हे, कमती हे तभो ले काम अउ बिचार ले बिसारे ल सुधारे जा सकते हे। होही, सब होही मनखे करही त का नइ होही, फेर कुरसी बुद्धि ले नइ होवय। जेन होही भुंइया अउ माटी के उपजे खरतरिहा मन के परसादे होही।
छत्तीसगढ़ ल नेता नइ सेव चाही, जपइया सेवक नइ करइया सेवक। काम करे के पहिली हमन देखथन के येमा हमला का मिलही, सबे जगा दुकान अउ बजार लगाए कस नफा-नुकसान के नाम तउल ल नेत के चलबो त नवा राज मंका-का गढ़बो। देस बर मरइया मन कहू खाए के पाए के सोचतीन त का हम अजादी पातेन? माटी सेवा के भाव, जन-सेवा के भाव कहू हमर अन्तस मं आ जाय त छत्तीसगढ़ ल सोनाखान बनत जादा दिन नइ लगै। जतका मिहनत अउ दिमाक हम अपन आप ल देखाए- समटकाए मं लगाथंन कहूं ओतके अक्कल सार साहित्य के सिरजे म लगा लेतेन त आज छत्तीसगढ़ी मं देखाए, बताए अउ समझाए के लइक, सेहराए के लइक साहित्य के खजाना पाये रहितेन।
मीठे-मीठ के मोह ह तको जादा बने बात नोहय। धितराष्ट्र के मोह मं दुरजोधन बिगडग़े अउ अतेक बड़ राजपाट के नास होगे। अपन बोली, अपन भासा अउ अपन संस्कृति ह कोन ल बने नइ लागही। सेहराए के ल सेहराना चाही अउ जेन अलकर रद्दा ल सहीं मनवाए के जिद करही तेकर बर टोकना-बरजना तको जरूरी हे। बिना इंजन के खाली डब्बा ह पचास साल चलगे, इहां के रहइया मन ल आरो नइ मिलिस। अब रद्दा म परे जिनिस कस बिना जियाने राज मिलगे त अब सब बोमियाए लगिन। बिना गियान, बिना समझ के हमर लिखइया पुरखा मन सियान होगे, मर-खप तको गे, तभो ले हमला न तो अपन इतिहास के कसूर समझ मं आत हे, न अभी आज के समझ हे के आज अउ अब हमला का कहना चाही के छत्तीसगढ़ी साहित्य ह चार बर दरपन बन सकै।
छत्तीसगढ़ी भासा अउ राजभासा के पहिली माटी मरजाद अउ अन्तस, मान-सम्मान के चेत-सरेख कर लेतेन त बांचे-खोंचे नेंग ह पाछू होवत रहितिस। साहित्यकार चाहे जुन्ना होय, चाहे नवा होये, उही ह दूरिहा जा पाथे जेन अवइया बीस बच्छर के बात ल अगतहा अपन कलम मं नाप डरथे, त कोन हे आज जेन अइसन नेत के लिख पाये हे .. दूर-चार झन मिल जाय त बहुत हे। इंहा तो लिखइया-पढ़इया मं तको भारी रोग-दोख छाये हे। जेन ल मनोरोग माने-समझे जात हे।
जेन छत्तीसगढ़ी लिखत हे तेन ल हिंदी ह फूटे आंखी नइ सुहावै, अउ जेन हिंदी लिखत हे तेन छत्तीसगढ़ी के पार नइ पावै, जेन दूनो मं सामरथ रखते तेन मन अकादमी के तीर-तखार बिगन मान-बलाव के जाना नइ चाहैं। अउ जेन मन सरकारी मठ मं धुनी रमाये हे वोमन भजन-कीर्तन ले जादा साहित्य सिरजन नइ पाये हे। अस्सी प्रतिसत इहां के जनमे कवि-लेखक मन माटी के मोल जानथे, फेर परम्परा अउ अंध बिस्वास के राग-पाग मं अतेक बंधा गेहे, अतेक मोहा गेहे के इंकर चलै त छत्तीसगढ़ी पाठ्यक्रम मं माता सेवा, रामधुनी, डंडा नाच, सुवा, पंडवानी, पंथी के भरमार हो जही।
जेन मन परम्परा ल साहित्य मानथे, वोमन बइला गाड़ी के खेदइया आय। खेदत-खेदत अंऊघा जाय, सुत जाय तभो ले चेतलग बइला ह अपन खांध मं भार लेके मालिक के मोहिटी तक पहुंचाबे करही। जब तक हम पढञे के आदत नइ बनाबो, तब तक हमर चेत अउ बुद्धि के बिस्तार नइ हो पाय। लिखे के सौ गुना पढ़े जाथे त एगुना लिखाथे। सौ बात के एक बात साहित्य लिखई भारी झंझट के काम ये। तभे तो समझन सम्मेलन बर मंच खोजथें, दू घंटा के तमासा, दू हजार चित्त…!

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