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रायपुर

मिरित्यु भोज लोक परंपरा या सामाजिक बुराई

बिचार

रायपुरMar 07, 2019 / 07:07 pm

Gulal Verma

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मिरित्यु भोज लोक परंपरा या सामाजिक बुराई

लोक के अपन नीति-रीति होथे, जेकर अधार म लोक-बेवहार बनथे। इही लोक-बेवहार ह परंपरा के रूप घर लेथे। धीरे-धीरे लोक म कइठन परंपरा बन जाथे। समाज म कुछ परंपरा ह अइसे होथे जेला बनाए रखना जरूरी होथे, काबर कि ओकर ले देस-राज अउ समाज के पहिचान जुड़े होथे। फेर कुछ परंपरा ह अइसे हें जउन ह सामाजिक बुराई के रूप म दिखथे जउन ल तुरते बरोय के जरूरत हे।
लोक अउ परंपरा ह एक सिक्का के दू पहलू आय। लोक हे तब परंपरा हे अउ परंपरा हे तब लोक के पहिचान हे। इही लोक-परंपरा ह आगू चल के संस्कीरीति बन जाथे। संस्कीरीति सही म मनखे के संस्कार आय, जेमा सुख-दुख के अनुभूति समाय रहिथे। अउ ओकर ले मनखे के भावनात्मक जुड़ाव होथे। संस्कीरीति के बिना कोनो समाज के अस्तित्व नइ होय ।
भारत देस ल परंपरा के देस कहे जाथें। इहां किसम-किसम के परंपरा दिखथे। यदि कहे जाय-‘भारत के मनखे ‘परंपरा म जनथे अउ परंपरा म मरथे’ त कोनो बड़का गोठ नइ होही। हमरो छत्तीसगढ़ म कइठन परंपरा हे जउन हर ‘जोंख’ कस अइसे चिपक गे हे कि छोड़े के नामों नइ लेवे। कुछ परंपरा मन ले मुक्ति पाय बर कतकोझन संत-महात्मा अउ समाज सुधारक चिंतक मन कतको उदिम करिन, वोमन खुदे मर-खप गे फेर ये छुटे के नांव नइ लिस। ओसने एकठन परंपरा हे ‘मिरित्यु भोजÓ। मिरित्यु भोज लोक परंपरा के इस्थान में सामाजिक बुराई के रूप म दिखथे। एक तरह ले ये ह ‘दुब्बर बर दू असाढ़’ कस आय। एक तो मनखे अपन परिजन के बिछुड़े के दुख ले दुखी रहिथे। मुड़भर के दुख, वोकर ऊपर समाज ल मिरित्यु भोज कराये के मजबूरी। मिरित्यु भोज एक अइसे परंपरा बन गे हे, ‘जेला आज न खात बने न उगलत बने।Ó अउ जइसे-जइसे समाज अपन बिकास करत हे ओइसने-ओइसने रूढ़ रूप धरत दिखथे। सिक्छा के प्रचार-प्रसार के बाद येकर स्वरूप म अउ जादा बिकरिति आवत जात हे। जतका पढ़े-लिखे अउ समरथ मनखे, वोकर ओतका बड़का चोचला। आज मिरित्यु भोज ह अपन हेसियत दिखाय के माध्यम बनत जात हे। लोगन मिरित्यु भोज म तरह-तरह के पकवान परोसे के सुरू कर दे हें। कई जगह तो ‘बफर सिस्टम’ होय लागे हे। धीरे-धीरे येकर बदलत रूप ल देख के अइसे लागथे कि सादी-बिहाव के जइसे यहू ह -‘स्टेटस-सिम्बाल’ मत बन जाए।
मिरित्यु भोज ह आज आम मनखे बर चिंता के कारन बनत जात हे। दिखावटीपन म येमन ह ‘गहूं कस किरा पीसावत जात हे।Ó करथे तब बने, नइ करय तब लोक-निंदा। लोक-निंदा ले बचे के खातिर मनखे अपन हेसियत ल खियाल नइ रख के परंपरा निभावत हे। ओतको म मनखे ओमा अउ सुवाद खोजथे। ये तो अइसे लागथे-‘बोकरा के जीव छूटय, खवइया ल अलोना।Ó छत्तीसगढ़ म एक बने परंपरा रहिस, वोहर अब नदांवत जात हे। जब काकरो घर कभु मरनी होय तब सगा-समाज मन तीन दिन ले दुखी परिवार अउ ऊंकर पहुना मन ल अपन घर बला-बला के खवाय-पीयाय। जेला ‘बगरिया’ कहे जाय। दूसर समाज के मनखे मन सेर-सीधा लान के देय। ये ह दुख के समे म एक तरह के सहयोग होय। दुखी मनखे ल अइसे भी खाय-पीये ल नइ भाय। वोहर कइसे अपन घर म चूल्हा जलाही। येहा ये बेवहार के एक सुग्घर भाव रहिस। आज ये सुग्घर भाव ह नंदावत जात हे। आज तो ये होवत जात हे कि माटी-देवाल, संगा-पहुना बर घर वाले ह भोजन के बेवस्था करथे। ये देख के अइसे लागथे कि आज के मनखे मन के संवेदना ह खतम होत जात हे। संवेदना के संग सहयोग के भाव ले जुड़े परंपरा के नंदाना सुवारथी समाज के अन्तसभाव ल परकट करथे। आज के तथाकथित बिकासवादी अउ नवा समाज ल मिरित्यु भोज के बदल सरूप म फेर एक बार बिचार करना चाही। येकर जउन बदलत सरूप ह सामने आवत हे वोहा समाज बर अड़बड़ घातक दिखथे। समाज म छोटे-बड़े सबो तरह के मनखे होथे। गरीब मनखे के जिनगी भर के कमई ह अइसन गलत परंपरा के निभाय म पानी कस बोहावत जाथे। जउन मनखे ह ये परंपरा ल बदलना चाहत हे उनला लोक-निंदा के चिन्ता छोड़ के आगू आय ल परही। समाज म ये नियम बनाय ल परही कि मिरित्यु भोज सामाजिक बंधनकारी नइहे। मनखे अपन स्वेच्छा ले दूरिहा ले आय अपन पहुंना मन ल भोजन कराय। जब तक समाज म नवा अउ उदारवादी चिंतन नइ आही तब तक समाज के अइसने कइठन परंपरा ल जिनगी भर ढोय़ेे ल परही।

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