लोकतंत्र को कमजोर करने चले हैं!
बाप बड़ा ना भैया, सबसे बड़ा रुपैया का है जमाना
लोकतंत्र को कमजोर करने चले हैं!
मुद्दा सत्तापक्ष बनाम विपक्ष का नहीं, बल्कि बहस यह है कि लोकतंत्र की मजबूती और जनता का हित किस तरह हो। वर्तमान राजनीति परिदृश्य और आमजन की हालात के लिए दोषी कौन है? सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच नाप-तौल के लिए कोई तराजू तो बनी नहीं, सिवाय ‘चुनाव में सबक सिखाने का।Ó ऐसे में लोग पांच वर्ष तक इंतजार करने के अलावा क्या करेंगे?
लोकतंत्र और आमजन का रिश्ता ‘जुड़वाÓ की भांति है। एक की पीठ पर कोड़े बरसाओ तो दूसरा की पीठ लहूलुहान हो जाती है। एक को ‘रोगÓ हो जाय तो दूसरा भी ‘बुखारÓ से तड़पने लगता है। एक की कमजोरी, दूसरा को भी कमजोर बना देता है। उसके उलट किसी एक की मजबूती से दूसरा भी मजबूत होता है।
सौ बात की एक बात! आखिर आज लोगों की ‘गलतीÓ क्या है? उनकी ‘गुनाहÓ क्या है? लोकतंत्र में आमजन ही सबसे से ज्यादा उपेक्षित व अभावों में क्यों हैं? जनता द्वारा, जनता की, जनता के लिए सरकार, फिर भी जनता के हिस्से में दुख-पीड़ा, तकलीफ ही क्यों? जनता के नाम पर, जनता से ही राजनीति
कब तक?
यह तो सच बात है कि तथाकथित उच्च वर्ग, उच्चशिक्षित, उच्चाधिकारी, धनाढ्य वर्ग का योगदान मतदान में कम होता है। यह वर्ग दूर से चुनाव का ‘खेल-तमाशाÓ देखता है। बड़े-बड़े बंगले, एसी रूम में बैठकर राजनीति की बड़ी-बड़ी बातें होती हैं। देश की राजनीति, सरकार बनने-गिरने का कयास लगते हैं। चुनाव में जीत-हार किसी भी दल या उम्मीदवार की हो, सरकार किसी भी पार्टी की बने, कहते हैं कि इस वर्ग को कोई खास फर्क नहीं पड़ता। बावजूद इसके उसका राजनीति में दखल अधिक और योगदान कम होता है।
दरअसल, इस दौर में लोकतंत्र का मतलब येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल करना और हर हाल में उससे चिपके रहना हो गया है। पहले इस तरह के हालात नहीं थे। आज राजनीति ‘अखाड़ाÓ बन गया है। फलस्वरूप, चुनाव जीतने और सत्ता पाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी जाती है। जब कोई नेता किसी पार्टी या सरकार का हिस्सा बन जाता है तो फिर उसकी शक्ति दूसरों को गिराने, पीछे हटाने, नीचा दिखाने या बर्र्बाद करने में लगती है। इस चक्कर में समाज, देश और लोकतंत्र की नींव कमजोर होने लगती है।
राजनीति का मतलब है निस्वार्थ भाव से जनसेवा। अर्थात राजनीति में प्रवेश वाले निस्वार्थी हों। उनमें जनसेवा व देशहित की भावना हो। मैं ही हूं, मेरे से बड़ा कोई नहीं है, की भावना राजनीति को ‘दल-दलÓ बना देता है। ईमानदारी व सेवा भाव को व्यवहार में उतारें, कार्य में परिणित करें, तब माना जाएगा कि कोई सचमुच लोकतंत्र के हितकारी राजनीतिज्ञ है।
धनबल, बाहुबल और बाप बड़ा ना भैया, सबसे बड़ा रुपैया के जमाना में आज आम लोगों को दोयम दर्जे के नागरिक माने जाते हैं। यदि ये अपना हक या अधिकार मांगते हैं तो ‘आश्वासनोंÓ का झुनझुना थमा दिया जाता है। सरकार के नुमाइंदे और तमाम जनप्रतिनिधि आदर्श प्रस्तुत करें। नई रोशनी दिखाएं। अभाव का दर्द समझें। वादा करें, उसे निभाएं। लोकतंत्र में वादाखिलाफी, धनबल, बाहुबल, अपराध, धोखा, छल-कपट, स्वहित नहीं होगा तो वह मजबूत बना रहेगा।
Home / Raipur / लोकतंत्र को कमजोर करने चले हैं!