इंतजार की इंतहा
लोगों के मन-मस्तिष्क में ‘लाख टकेÓ का ‘एकÓ ही सवाल उमड़-घुमड़ रहा है कि जिसे वोट दिया है वो जीतेगा या नहीं?
बस इंतजार की घड़ी ही खत्म नहीं हो रही, वर्ना मतदाताओं ने अपना फर्ज निभा दिया है। भाषण व आश्वासन सुने, रैली-जुलूस में शामिल हुए। नारे भी लगाए। आखिर में अपना मत दान भी कर दिया। लेकिन इंतहा हो गई है चुनाव परिणाम के इंतजार की। दिमागी घोड़े दौड़ रहे हैं। लोग हर घंटे सरकार बना और गिरा रहे हैं। घूम-फिरकर एक ही बात, आखिर सरकार बनेगी किसकी? परिवर्तन होगा या लगेगा चौका। जितने मुंह, उतनी बातें। कभी-कभी तो बहस मतभेद से बढ़ कर मनभेद या वाद-विवाद तक पहुंच जाती है। हो भी क्यों ना! आखिर कोई किसी से अपने को कम समझता है क्या। जीत-हार को लेकर बहस का अंतहीन सिलसिला जारी है।
लोगों के मन-मस्तिष्क में ‘लाख टकेÓ का ‘एकÓ ही सवाल उमड़-घुमड़ रहा है कि जिसे वोट दिया है वो जीतेगा या नहीं? जिस पार्टी का समर्थन किया है, उसकी सरकार बनेगी या नहीं? अब ऊंट किस करवट बैठेगा यह तो 11 दिसम्बर को ही पता चलेगा। लेकिन वोटर-सपोर्टर की बहस सुन भीड़ लग जाती है। लोग खूब मजा लेते हैं। भीड़ में कुछ ऐसे लोग भी मौजूद रहते हैं जो बहसबाजों की हां में हां मिलाते नजर आते हैं। वे किस पक्ष में है, पता ही नहीं चलता।
एक बहस यह भी चल पड़ी है कि ‘जीत गए तो क्या वादा निभाएंगे! या फिर ‘जुमलाÓ कहकर टा-टा, बॉय-बॉय करके हाथ हिला देंगे। एक वोटर ने कहा – ‘जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा। रोके स्वार्थ चाहे, रोके स्वार्थी, तुमको घोषणा पूरा करना पड़ेगा। वोटर की बात सुन एक पार्टी का सपोर्टर बोल पड़ा – मेरा पार्टी से है वर्षों का नाता, यूं ही नहीं करता मैं सपोर्ट उसका। नेता मुझे जाने या ना जाने, कोई मेरी बात माने या ना माने। लेकिन ‘अंधभक्तÓ हूं मैं उसका। सपोर्टर की पार्टीभक्ति से प्रभावित हो पास खड़े भिखारी ने कुछ यूं गुनगुनाया – ‘कसमे वादे प्यार वफा सब, बातें हैं बातों का क्या। कोई किसी का नहीं ये झूठे, नाते हैं नातों का क्या। लेकिन वह तो था ‘अंधभक्तÓ! कहां हार मानता, कैसे पीछे हटता। सो, वह भिखारी की तरफ आंखें ततेर कर बोल पड़ा – कस्में वादे निभायेंगे हम, जीतते रहेंगे चुनाव-दर-चुनाव।
अब चुनाव परिणाम क्या होगा, इसका तो पता नहीं। लेकिन राजनीतिक दलों के मुखिया, कर्ताधर्ता, सर्वेसर्वा और ऊंचे पदों पर काबिज लोगों के व्यवहार की चर्चाएं बुद्धिजीवी वर्ग मेंं भी चल पड़ी हंै। एक बुद्धिजीवी ने अपना मत रखा -दूसरों के जीवन पर नियंत्रण रखकर नियंत्रक बनने की महत्त्वाकांक्षा मनुष्य को स्वयं अपने से दूर कर देती है और जब कोई शासक या नेता नियंत्रक बन जाता है तो आम नागरिकों या पार्टी कार्यकर्ताओं की स्वतंत्रता सीमित कर देता है। आजकल देश में ज्यादातर राजनीतिक दलों का हाल कुछ ऐसा ही है। क्या जमीनी या पार्टी समर्पित कार्यकर्ता किसी दिन नियंत्रक के खिलाफ विद्रोह करेगा?
दूसरे बुद्धिजीवी ने कहा कि इस विषय पर कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह सच है कि आम आदमी के मन की चिंगारी एक ना एक दिन शोला जरूर बन जाती है।
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