एक बार उन्होंने एक नए महल का निर्माण करवाया था। जिसका प्रदर्शन वह भगवान भोले नाथ के सामने करना चाहते थे। इसलिए वह अपने महल में भोजन का आमंत्रण देने कैलाश पर्वत पहुंचे थे। जहां भगवन शिव ने उनकी मन की बात पहले ही समझ ली।
जब कुबेर ने उन्हें भोजन का निमंत्रण दिया तो उन्होंने कहा कि मैं नहीं आऊंगा। लेकिन मेरा छोटा पुत्र गणेश जरूर जाएगा। कुबेर उनकी बात मानकर अपने महल लौट गए। दुसरे दिन गणेश जी अपने मूषक पर सवार होकर उनके महल पहुंचे। कुबेर ने उन्हें अपने महल दर्शन के लिए कहा। लेकिन गणेश जी ने मना करते हुए कहा – मैं यहां भोजन करने आया हूं। आप भोजन लगवाएं, मुझे भूख लगी है। जिसके बाद कुबेर ने अपने महल के समस्त सेवकों को भोजन बनाने और परोसने में लगा दिया।
जिसके बाद गणेशजी ने भोजन शुरू किया। लेकिन उनकी भूख खत्म नहीं हुई। वास्तविकता यह थी कि गणेशजी का पेट माता पार्वती के हाथ से एक कौर खाना खाकर ही भरता था। यहां मां के अभाव में उन्हें पेट भरने का आभास ही नहीं हो रहा था। आखिर में कुबेर ने हाथ जोड़कर माफी मांग ली और भोजन परोसने में असमर्थता जता दी। गणेशजी बहुत नाराज हुए और बोले कि तुम तो एक व्यक्ति को भरपेट भोजन तक नहीं करा सकते, फिर तुम्हारे इस धन-ऐश्वर्य और स्वर्ण की लंका का क्या मोल? पहले भोजन की व्यवस्था तो कर लेते, फिर निमंत्रण देते। गणेशजी के वचन सुनकर कुबेर शर्म से पानी-पानी हो गए। उधर कैलाश पर्वत पर ध्यानस्थ शिवजी ने इस पूरे प्रकरण का भरपूर आनंद लिया।