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राजसमंद

हमारी सुध नहीं ली तो ढूंढे नहीं मिलेगा हमारा काम

– राज्य सरकार के आगामी बजट को लेकर दिहाड़ी मजदूरों व कामगरों से बातचीत

राजसमंदFeb 06, 2020 / 11:31 am

Rakesh Gandhi

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राकेश गांधी
राजसमंद. प्रदेश सरकार का आगामी बजट आने को है। विभिन्न वर्गों के लोगों को अपने घर का बजट सुधारने को लेकर सरकार से काफी उम्मीदें हैं। राजस्थान पत्रिका ने इससे पूर्व बड़े-छोटे व्यवसाइयों व प्रोफेशनल्स लोगों से बात की थी। इस बार हमने चुना है उन लोगों को, जो हर तरह से किसी भी तरह की कल्याणकारी योजनाओं या बजट की घोषणाओं से अछूते ही रह जाते हैं। खासकर कामगर मजदूर, जो सूरज की पहली किरण के साथ अपना काम शुरू कर देते हैं और आम लोगों के बिछोने में घुसने तक काम में लगे रहते हैं। इसके बावजूद वे अपने परिवार का खर्च अच्छे नहीं चला पाते। अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं दिला पाते। देश को आजाद हुए कई दशक हो गए, लेकिन इन्हें सिवाय वोट के, कोई नहीं पूछता। दु:खद तो ये है कि अब इन कामगर मजदूरों के बच्चे अपने परिजनों के पैतृक व्यवसाय को अपनाना भी नहीं चाहते, क्योंकि उन्हें इसमें बरकत नजर नहीं आती। दूसरा पहलू ये भी है इन कामगरों के बिना आम लोगों का जीवन भी अधूरा ही है। प्रस्तुत है ऐसे लोगों से हुई बातचीत के अंश..

आईना
किसी भी राज्य का बजट वहां के हर आम नागरिक को ध्यान में रखकर बनाया जाता है। पर हैरानी इस बात की है कि आज भी प्रदेश में बड़ी संख्या में दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूर व कामगर इस बजट व्यवस्था से अनजान ही हैं। उन्हें सरकार के इस बजट से कोई वास्ता भी नहीं है और न ही उन्हें इस संबंध में कोई जानकारी रहती है। सरकार की ओर से भी इस बजट को लेकर उनसे कोई बातचीत या शिक्षण की कोई व्यवस्था है। ऐसे में उनके लिए यदि कोई लाभकारी घोषणा भी होती है तो उन्हें बताना वाला भी कोई नहीं है।
अपेक्षा
इन कामगरों व दिहाड़ी मजदूरों को ये ही अपेक्षा है कि सरकार किसी तरह उनके काम को बचा ले, ताकि उनका घर-परिवार चलता रहे। या फिर कोई ऐसी नई व्यवस्था हो जिससे उन्हें जीविकोपार्जन के लिए भटकना न पड़े। कुटीर या लघु उद्योगों के जरिए उन्हें व उनके परिवार के युवाओं को रोजगार मिल सके। इसके साथ ही उनके काम के कौशल को निखारने के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था के साथ ही उनके कार्य को बढ़ाने के लिए आसान ब्याज दरों पर ऋण की व्यवस्था हो। नए बाजार विकसित किए जाएं।

दिलीप मोची
जूते ठीक कराने का काम धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। बड़े शहरों में तो ढूंढे मोची नहीं मिलते। हमारे बच्चे ये काम नहीं करना चाहते। न ही हमारे पास इतना पैसा है कि हम उन्हें अच्छी शिक्षा दिला पाएं। बरसों से पूरा परिवार इसमें लगा हुआ है, लेकिन घर खर्च चल जाए, ये ही काफी है। दिनभर सड़क पर बैठ कर मजदूरी करते हैं, लेकिन हमारी कोई नहीं सोचता। अब इस धंधे में मन नहीं रहता। 100 से २50 रुपए में तो जूते ही मिलने लगे हैं। ऐसे में कौन अपने पुराने जूतों की मरम्मत कराएगा। सरकार को चाहिए कि हमारी भी सोचे, ताकि हम भी अपने भविष्य को लेकर आश्वस्त हो सकें। हमारा भविष्य तो अंधकार में ही नजर आ रहा है। यदि सरकार लघु उद्योगों को प्रोत्साहन देते हुए भी हमें भी कम ब्याज पर ऋण सुलभ करवाएं तो कुछ नया करने की सोचें, ताकि हमारे बच्चे भी उससे जुड़ें। वरना बजट-वजट से हमारा क्या वास्ता..?

विनोद
पहले देवगढ़ में चाय की दुकान चलाता था। कुछ माह से कांकरोली आया हूं। धंधा इतना ही है कि दो समय की रोटी का जुगाड़ कर सकूं। इससे आगे सोचने की स्थिति में मैं नहीं हूं। माल समेत 300-400 का जुगाड़ मुश्किल से हो पाता है। यदि सरकार कुछ मदद करे, तो हम भी कुछ आगे नया करने की सोचें। वरना मेरे बच्चे तो बड़े होकर ये मजदूरी नहीं करने वाले। चाय बनाने के अलावा यदि सरकार हमारे जैसे लोगों को किसी काम के लिए पार्ट टाइम मजदूरी का अवसर दे तो हम अपने परिवार को कुछ आराम से चला पाएंगे। सरकार को अपने बजट में हमारे लिए सोचना ही चाहिए।

मुकेश सिकलीगर

नाथद्वारा से कोई 15-20 दिन में एक बार आता हूं। दूसरी जगह भी घूमता रहता हूं, ताकि परिवार चलाने लायक व्यवस्था हो जाए। वैसे भी चाकू-छुरी की धार तेज करने वाले अब जिले में बहुत ही कम बचे हैं। जितना पैसा हम धार तेज करने के लिए मांगते हैं, उसमें कुछ मिलाकर लोग नया लेने में विश्वसा करते हैं। फिर भी एक उम्मीद के साथ हम बाजार में घूमते फिरते हैं। अब इस धंधे में कोई नहीं युवा नहीं आ रहा है। मैं अभी युवा हूं.. मेहनत कर सकता हूं। सरकार यदि हमारे जैसे को मौका दे, मैं भी अच्छी मजदूरी कर सकता हूं। वैसे हमारी सोचता कौन हैं। आपने पहली बार रोककर इतनी बातें पूछी हैं।

लच्छू (लॉरी चलाने वाला)
‘मैं बिल्कुल पढऩा नहीं जानता। आमेट से आए बीस-तीस बरस हो गए। लॉरी चलाते-चलाते इतना बुढ़ा दिखने लगा हूं, पर मेरी उम्र 40-45 से ज्यादा नहीं है। पूरे दिन लॉरी में सामान ढोता हूं तब कहीं जाकर 300-400 रुपए जेब में आ पाते हैं। सरकार का बजट क्या होता है? उसमें हमारे लिए क्या होता है? मुझे कुछ नहीं पता। आप ही बता दो।Ó ये हकीकत है कि इन मजदूरों को वाकई नहीं पता कि बजट क्या होता है और उन्हें इससे क्या फर्क पड़ता है।
नानालाल पुरबिया
(पानी-पताशे वाला)
पहले औरंगाबाद में ये काम करता था, पर पिछले कुछ छसमय से कांकरोली आकर ये काम कर रहा हूं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि ये पानी-पताशे के धंधे में अच्छी बरकत है। पूरी मेहनत करें व अच्छा स्वाद हो तो आराम से 500 से 1500 रुपए प्रतिदिन कमाए जा सकते हैं। ये हमारे लिए काफी है। कांकरोली-राजनगर में ही 250-300 ऐसे ठेले वाले होंगे। रही सरकार की मदद की बात तो, तो सरकार सिर्फ इतना कर दे कि हमारे लिए शहर में चार-पांच जगह व्यवस्थित कर दें, ताकि हमें व्यस्त मार्केट में खड़े होकर ये काम न करना पड़े। हममें से कई ठेले वालों को तो घूम-घूम कर ये धंधा करना होता है। शहर में गार्डन व अन्य पर्यटन स्थलों पर हमें जगह सुलभ करवाए तो हमारे धंधे और विकसित होंगे। हम ठेले वालों को भी सरकार कम ब्याज दरों पर ऋण की व्यवस्था करवाए। हमें तो बजट की इतनी ही समझ है। बाकी सरकार बजट में क्या करती है, ये हम नहीं जानते।

भंवर-कमला बाई
राजनगर मार्ग पर एक छोटी सी दुकान पर मटके व अन्य मिट्टी से बने उत्पाद बेचने वाले भंवर व कमला बाई बताती है, ‘शौकिया कुछ लोग मिट्टी के बर्तन आदि खरीद लेते हैं, वरना मटके तो अब कुछ ही घरों में रह गए हैं। रही सही कसर इन कैम्परों ने निकाल दी। वैसे भी मिट्टी से मटके बनाने में हमें भट्टियां चलानी होती है और सरकार धुएं वाला कोई भी काम हमें नहीं करने देती। अब ये कुंवारियां व अन्य कस्बों से हमारे पास बन कर आती है और हम इन्हें बेचते हैं। वैसे भी प्रजापति/कुम्हार परिवार के लोगों के पास ये धंधा अब नहीं के बराबर ही है। बच्चे तो इस काम में आ ही नहीं रहे। हमारे पास भी गांव की खेती-बाड़ी से जो थोड़ा-बहुत समय मिलता है, हम ये काम करते हैं। वरना न तो सरकार इस काम को प्रोत्साहन देती है और न ही हमें कोई ऋण मिलता है। ये भी एक कला है। ऐसे में सरकार को चाहिए कि स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद मिट्टी से बनी इन वस्तुओं को अपने बजट में प्रोत्साहन देने के प्रयास करे।
ब्रजेश/श्रवण कुमार
पिताजी से विरासत में मिली है ये दुकान, जहां में सवेरे से शाम तक साइकिल व बाइक के पंक्चर सही करता हूं। बहुत मेहनत का काम है, पर ठीक-ठाक मजदूरी हो जाती है। पर हां, अब बच्चों व युवाओं को इसमें कोई इंटरेस्ट नहीं है। घर की दुकान है तो चल जाता है, वरना किराए पर दुकान लेकर ये काम करना बहुत कठिन है। कुछ काम बढ़ाना का मानस भी है, लेकिन इतना पैसा नहीं है। सरकार यदि हमारी मदद के लिए सोचे तो हम भी कुछ हिम्मत जुटा सकते हैं। हमें बहुत ही कम ब्याज पर ऋण मिले और छोटे कामगरों को प्रोत्साहन की सोचें तो कम-पढ़े लिखे युवा इस व्यवसाय को अपना सकते हैं।

शंभूलाल कुमावत
(सब्जी विक्रेता)
नोगामा से हूं। करीब 20-22 साल से ठेला लगाकर सब्जियां बेचता हूं। 8वीं पास हूं, अत: इससे ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकते, लेकिन अपने घर को चलाने के लिए ठीक-ठाक मजदूरी हो जाती है। राज्य सरकार के बजट से हमारा क्या मतलब है। हम तो मजदूरी करते हैं और शाम को लौट जाते हैं। ये बजट तो बड़े लोगों के लिए होता है।

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