दो प्रकार के प्रशिक्षण पर विचार हो। पहला अल्पकालिक, जहां तीन से छहमाह के प्रशिक्षण द्वारा अवधारणाओं को स्पष्ट कर चित्रकला के मुख्य कम्पोनेंट्स पर ट्रेन्ड किया जाए। यह स्थानीय स्तर पर मंदिर सेवा आश्रित स्थानीय, क्षेत्रीय युवाओं को मंदिर प्रबंधन द्वारा दिया जाना चाहिए। दूसरा दीर्घकालिक, जो दो-तीन वर्षों का सुनियोजित पाठ्यक्रम हो, यूनिवर्सिटीज द्वारा कौशल आधारित रोजगारोन्मुखी भी हो। इसके लिए यथाशक्ति पुष्टिमार्ग में चल रहे फाउंडेशन्स, अकादमियों और वैष्णव मतावलंबियों का सहयोग लिया जाए। ये कोर्स न्यूनतम एक व अधिकतम दो वर्ष के हो सकते हैं। प्रशिक्षित चित्रकारों द्वारा ‘आत्मनिर्भर भारतÓ अभियान के प्रावधानों का लाभ लेकर स्वयं वित्त पोषित या सहकारिता आधारित रोजगार में बदला जा सकता है।
– डा. राकेश तैलंग, शिक्षाविद्, पूर्व जिला शिक्षा अधिकारी
– कमल सांचीहर, प्रसिद्ध चित्रकार