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रतलाम

बुद्धि मनुष्य का उत्थान भी कर सकती है और पतन भी

बुद्धि मनुष्य का उत्थान भी कर सकती है और पतन भी

रतलामNov 03, 2018 / 05:33 pm

harinath dwivedi

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बुद्धि मनुष्य का उत्थान भी कर सकती है और पतन भी

आठ दिवसीय प्रवचनमाला में आचार्यश्री रामेश ने कहा

रतलाम। बुद्धि है, तो बल है। बुद्धि है, तो समाधान है। बुद्धि जीवन का संचालन करने वाली है। यह मनुष्य को उत्थान की और भी ले जा सकती है और पतन की और भी ले जा सकती है। व्यक्ति की जैसी भावना होती है, वैसे ही परिणाम होते है, इसलिए जैसा अपने लिए चाहो, वैसा दूसरों के लिए सोचो। दूसरा हम से अच्छा व्यवहार करे, उससे पूर्व हमें उससे अच्छा व्यवहार करना चाहिए। हम यदि किसी पर कीचड़ उछालेंगे, तो पहले वह हमारे हाथ में ही लगेगा।
यह विचार शुक्रवार को आठ दिवसीय प्रवचनमाला के तीसरे दिन बुद्धिमय जीवन विषय पर अमृत देशना देते हुए आचार्यश्री रामेश ने व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि आधुनिकता के साथ हमारी बुद्धि कितनी ही प्रखर हो गई हो, लेकिन यह देखना जरूरी है कि वह किस दिशा में है। कठिनाईयां हर क्षेत्र में आती है, लेकिन कठिनाई से प्रभावित होकर कोई रास्ता छोड़ देता है, तो उसे मंजिल कभी नहीं मिल पाएगी। बुद्धि से सारे समाधान निकाले जा सकते है।

आचार्यश्री ने कहा कि वर्तमान समय में मनुष्य की जीवन शैली में बहुत बदलाव आया है। केमिकल खाद से उत्पादनों से लेकर सारी भौतिक सुविधाएं हमारे शरीर और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही है। बासी खाने, वात-वायु की बीमारी याने ज्यादा बाते करने वालों को अधिक आती है। केमिकल युक्त पदार्थ शरीर और स्वास्थ्य के साथ हमारे संस्कारों पर भी बुरा असर डालते है। इससे बचने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी बुद्धि का सही दिशा में उपयोग करना चाहिए।
जैसा व्यक्ति कर्म करता वैसे फल मिलता

प्रशममुनि ने कहा कि कर्म किसी को नहीं छोड़ते, चाहे वह राजा हो या रंक हो। व्यक्ति जैसे कर्म करता है, वैसा ही फल मिलता है। इसलिए हर पल, हर क्षण पुण्य और पाप को लेकर सावधान रहना चाहिए। चातुर्मास संयोजक महेंद्र गादिया ने बताया कि 3 नवंबर को प्रवचनमाला का विषय लब्धिमय जीवन रहेगा। संचालन विनोद मेहता एवं महेश नाहटा ने किया।

जो दूसरों के आंसू पोछता है वो ही परमार्थी

रतलाम। संसार के सभी प्राणियों को समभाव से देखों उनकी रक्षा और सुरक्षा करो। आज पाश्चात्य संस्कृति संवेदनाओं को नष्ट करने में सहायक हो रही है इनसे दूर रहना सीखों। जो केवल अपनी पीड़ा को जांचने-परखने का काम करता है वो स्वार्थी है और जो दूसरों की पीड़ा समझकर आँसू पोछता है वो परमार्थी कहलाता है। इसलिए परमार्थ के कामों से कभी पीछे मत हटों। जीवन को संवारना है तो परमार्थ का भाव हर प्राणी के लिए समान रुप से रखों।
यह विचार लोकेन्द्र भवन में आयोजित चातुर्मास के दौरान शुरु हुए धर्मसभा में मुनिश्री प्रमाणसागर महाराज ने वेदना का संवेदना में बदलने के लिए उपाय बताते हुए वेदना, संवेदना, सहानुभूति और समानुभूति के सूत्र समझाए। मुनिश्री ने कहां कि दूसरों को दुखी होते देख उसे हंसी का पात्र मत बनाईए। इंसान हो या पशु-पक्षी सभी के प्रति सहयोग, सहानुभूति और संवेदना का भाव रखिए।
संसार में कितने प्राणी जिन्हे जूठा भी नहीं हो पा रहा है
मुनिश्री ने कहां कि इस धरती पर सब को भोजन मिले ऐसी भावना आज कुछेक लोगों के मन में ही आती है। आज भी करोड़ों लोग भोजन करते समय झूठा छोड़ते है, मगर ये नहीं सोचते है कि संसार में कितने प्राणी जिन्हे जूठा भी नहीं हो पा रहा है। आज हर तरफ संवेदनाओं का संकट है, पानी के प्रवाह से शून्य नदी कि कोई शोभा नहीं वैसे ही संवेदना रहित मन वाला मनुष्य शून्य है। आदमी तो तभी आदमी कहलाएगा जब अंदर संवेदनाएं होगी, जितनी संवेदना उतनी सहानुभूति प्रकट होगी। सहानुभूति से ही सहयोग कि भावना आएगी। कम से कम सहानुभूति तो रखो, हमदर्द तो बनो, जीवन सफल होगा।

जितनी ज्यादा जरुरतें, उसका मन उतना ही अशांत-मुनिश्री
रतलाम। लाभ बढऩे से लोभ की भावना बढ़ती है और ज्यादा से ज्यादा लाभ अर्जित करने के लोभ में कर्म बन्धन बढ़ते जाते है। लाभ के के लिए धर्म और शास्त्र विरुद्ध धनार्जन के अपनाए जाने वाले रास्ते का अंत अनंत जन्मों की यात्रा के रूप में होता है। इसीलिए भगवान महावीर स्वामी ने अपरिग्रह का सिद्धांत समझाया है।

यह विचार आचार्यश्री जिनचन्द्रसागरसूरि एवं हेमचंद्रसागर महाराज बंधु बेलड़ी की प्रेरणा से मुनिश्री तारकचन्द्रसागर ने व्यक्त किए। करमचंद उपाश्रय, अयोध्यापुरम हनुमान रूंडी पर उत्तराध्ययन मूलसूत्र का वांचन करते हुए उन्होंने कहा कि आवश्यकता से अधिक वस्तु संग्रह भी तृष्णा के साथ कर्म बंधन को बढ़ाता है। जिसकी जितनी ज्यादा जरुरतें होती है उसका मन उतना ही अशांत रहता है। उन्होंने कहा कि मनुष्य जीवन का उपयोग यदि धर्म आराधना के लिए होता है तो ये उसकी सार्थकता है लेकिन इसके विपरीत यदि हम संसार में अपना जीवन पूरा कर देते है तो अपने लक्ष्य से भटक जाते है। मनुष्य जन्म पाकर यदि धर्म किया तो मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है और यदि भोगो में ही डूबे रहे तो अनेक भव की यात्रा की करना पड़ती है। इसलिए सावधान रहे।

प्रथम उपधान अठारिया तप दिसंबर में
रतलाम। आराधना भवन पोरवाड़ो के वास पर मुनिराज मोक्षदर्शन विजय महाराज, आगमरत्न विजय महाराज एवं साध्वीश्री भगवंत दिव्यप्रभा महाराज चातुर्मास के लिए विराजित है। आराधना भवन श्रीसंघ में 9 दिसंबर से 18 दिवसीय प्रथम उपधान अठारिया तप प्रारंभ होने जा रहा है। आराधना भवन ट्रस्ट बोर्ड अध्यक्ष अशोक लूनिया एवं सचिव हिम्मत गेलड़ा ने बताया कि संघ में आराधना भवन ट्रस्ट बोर्ड, आराधना भवन सेवा समिति, आगम मित्र परिवार तथा आराधकगण द्वारा व्यवस्था संचालन के लिए तैयारियां प्रारंभ कर दी है। गुरुदेव आगमरत्नविजय ने बताया कि जिस प्रकार व्यवहार में कार, स्कूटर चलाने हेतु ड्राइविंग लायसेंस की जरुरत पड़ती है। इन्कम टेक्स देन हेतु पेनकार्ड आवश्यक है, उसी प्रकार जैन धर्मावलम्बी को नवकार महामन्त्र को गिनने का विधिपूर्वक अधिकार लायसेंस प्राप्त करने हेतु प्रथम उपधान अठारिया करना आवश्यक रहता है। उपधान-तप साधना स्थल रामचंद्रसूरि मोक्षमार्ग वाटिका, वरोठमाता मंदिर परिसर, बिबड़ोद रोड़ पर सम्पन्न होगा।

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