गीता काल का महाभारत अभी भी समाप्त नहीं हुआ । हमारे भीतर कुविचार रूप कौरव अभी भी अपनी दृष्टता का परिचय देते रहते हैं । दुर्योधन और दुःशासन के उपद्रव आए दिन खड़े रहते हैं । मानवीय श्रेष्ठताओं की द्रौपदी वस्त्रविहीन होकर लज्जा से मरती रहती है । श्रेष्ठ योद्धाओं जागों । इन परिस्थितियों में भी जो अर्जुन लड़ने को तैयार न हो, उसे क्या कहा जाए ? भगवान ने इसी मनोभूमि के पुरुषों को नपुंसक, कायर, ढोंगी आदि उनके कटु शब्द कहकर धिक्कार था हममें से वे सब जो अपने बाह्य एवं आँतरिक शत्रुओं के विरुद्ध संघर्ष करने से कतराते हैं, वस्तुतः ऐसे ही व्यक्ति धिक्कारने योग्य हैं ।
जो लोग अपनी जिन्दगी को चैन और शाँति से काट लेने की बात सोचते हैं, वस्तुतः वे बहुत भोले हैं । संघर्ष के बाद विजयी होने के पश्चात् ही शाँति मिल सकती है । जीवन-निर्माण का धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र के रूप में हुआ है । यहाँ दोनों सेनाएँ एक-दूसरे के सम्मुख अड़ी खड़ी हैं । देवासुर संग्राम का बिगुल यहीं बज रहा है । ऐसी स्थिति में किसी योद्धा को लड़ने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं मिल सकता । सावधान सेनापति की तरह हमें भी अपने अंतर-बाह्य दोनों क्षेत्रों में मजबूत मोर्चाबंदी करनी चाहिए । गाँडीव पर प्रत्यंचा चढ़ाने और पाँचजन्य बजाने के सिवाय और किसी प्रकार हमारा उद्धार नहीं ।