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धर्म और अध्यात्म

ध्यान और ईश्वर

ईश्वर जब किसी से रुष्ट होता है, तब वहां विकर्षण क्रिया होती है। विकर्षण की मात्रा तय करती है कि जीव कहां कितनी दूर जाकर ठहरेगा

Dec 10, 2017 / 09:41 am

Gulab Kothari

meditation and yoga

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ईश्वर जब किसी से रुष्ट होता है, तब वहां विकर्षण क्रिया होती है। विकर्षण की मात्रा तय करती है कि जीव कहां कितनी दूर जाकर ठहरेगा। पहला पड़ाव है आत्मा, दूसरा मन और तीसरा एवं अन्तिम पड़ाव है इन्द्रियां और उनसे जुड़ा भोग। जब किसी को बहुत समृद्धिशाली एवं भोगी रूप में देखें, तो तुरन्त समझ में आ जाएगा कि इससे ईश्वर अत्यन्त रुष्ट है। इसके विपरीत यदि ईश्वर किसी से बहुत प्रसन्न होता है, तब उसे संासारिक सुखों से वंचित करता है। पग-पग पर उसकी अग्रि-परीक्षा लेता रहता है। एक के बाद एक कष्ट देता चला जाता है। ताकि एक क्षण के लिए भी वह ईश्वर को न भूल सके।
यहां उसकी आकर्षण की क्रिया कार्य करती है। आकर्षण और विकर्षण दो जीवन के आधार हैं। इनको ही विकास और संकुचन तथा प्रकाश और विमर्श कहते हैं। ज्ञान और कर्म भी इन्हीं का नाम है। इन्हीं के स्पन्दनों से जीवन क्रियाशील रहता है। इच्छा-क्रिया-कर्म साथ रहते हैं। मन की इच्छा, प्राणों की क्रिया और शरीर का कर्म। मन-प्राण-वाक् भी सदा साथ ही होते हैं। मन की प्रकृति, प्राणों की अहंकृति और शरीर की आकृति भी एक साथ बनते हैं। क्रिया-भाव-शब्द भी अविनाभाव रहते हैं। इन्हीं के साथ प्रकृति के सत, रज और तम जुड़े रहते हैं।
जीवन के दो बड़े अवरोध हैं-ममकार और अहंकार। ममकार और आसक्ति मन के विषय हैं। अहंकार बुद्धि का विषय है। बुद्धि विषयों पर जाती है। मन पर विषय आते हैं। मन मनमानी करना चाहता है। बुद्धिमान व्यक्ति अपने अहंकार की ठोकरें खाता रहता है। उसके अहंकार को ठेस पहुंचती ही रहती है। वह सम्बन्धों को तोड़ता है। विकर्षण क्रिया युक्त होता है। उष्ण होता है। मन आकर्षण के सिद्धान्त पर कार्य करता है। मिठास के कारण जोड़ता भी है और आसक्त भी हो जाता है। मन अतीत में भटकता है।
बुद्धि भविष्य की कल्पनाओं में गोते लगाती रहती है। ध्यान का अर्थ है वर्तमान में जीने का अभ्यास। अष्टांग योग की सम्पूर्ण प्रक्रिया इसी मन को वर्तमान से जोडऩे की ही है। मन चंचल है और इसका कारण है इन्द्रियां। इन्हीं से चित्त वृत्तियां पैदा होती हैं। वृत्ति ही प्रवृत्ति बनती है। चित्त वृत्ति का निरोध ही निवृत्ति मार्ग है। योगश्चित्तवृत्ति निरोधक:। मन-बुद्धि-अहंकार का नाम चित्त है। जब अहंकार मन पर हावी होता है, तब मनमानी होती है। बुद्धि से जुड़ता है, तब अभिनिवेश।
जीव का लक्ष्य
जीव का लक्ष्य है फिर से परमात्मा से जुड़ पाना। जिस मार्ग पर चलकर वह दूर हुआ, उसी मार्ग पर विपरीत यात्रा करना। इन्द्रियों को भीतर की ओर करके मन में समेटना। मन को आत्मा की ओर ले जाना। अन्त में आत्मा और परमात्मा का मिलन। आत्म-साक्षात्कार। नए आकर्षण मार्ग की स्थापना करनी पड़ती है। ‘स्व’ को जानना और इसी के सापेक्ष ईश्वर/ आत्मा को जानना। इसके लिए दिशा को सर्वथा विपरीत कर देना कोई साधारण बात नहीं है। यह तो जीवन की महत्वपूर्ण घटना होती है। रूपान्तरण का कार्य है। स्वयं व्यक्ति शायद इसे मूर्त रूप न दे पाए। व्यक्ति स्वाभावत: शरीर से चिपक कर जीता है।
इन्द्रियों का व्यापार भी शरीर से ही जुड़ा हुआ दिखाई पड़ता है। स्वरूपत: असम्पृक्त है। ज्ञाता देह से पृथक होता है। देह ‘अहम्’ पैदा नहीं कर सकता। अहम् कारक है आकर्षण-विकर्षण की प्रक्रिया का। इस क्रिया के मात्रात्मक तारतम्य से ज्ञान और भाव परिवर्तित होते हैं। स्पन्दन का आधार अहम् होता है। स्वयं निष्क्रिय होता है। अत: क्रियाकाल में इसका बोध ही नहीं होता। भाव-क्रिया-शब्द साथ रहते हैं। अत: यथार्थ स्थिति को समझने के लिए उसे किसी गुरु की आवश्यकता पड़ सकती है। फिर भी उसको एक कार्य तो पहले करना ही होगा। वह कार्य है- संकल्प। यह नई दिशा का पहला चरण बनता है। इसी को पतञ्जलि ने धारणा कहा है। इसी से ध्यान एवं समाधि का मार्ग प्रशस्त होता है। इसके बिना तो संभव ही नहीं है।
ध्यान में ध् का अर्थ है धारण करना। ‘या’ का अर्थ है पूर्णतया नियंत्रित भाव से। संकल्प की निरन्तरता ही ध्यान है। इसी से मन की आधि को सम्यकत्व, समता प्राप्त होता है। समाधि की स्थिति बन जाती है। मन में कामनाओं का बाह्य प्रवाह ठहर जाता है। व्यक्ति आप्तकाम हो जाता है। संकल्पित मन आत्ममुखी होकर ऊध्र्वगति में आरोहण करने लगता है।
आज का शिक्षित व्यक्ति ध्यान से वंचित हो गया। उसके पास ज्ञान है और ज्ञेय है, किन्तु उसका ज्ञाता से कोई सम्बन्ध नहीं है। उसे विषय तो पढ़ाए जाते हैं, किन्तु जीवन में उसका उपयोग नहीं सिखाया जाता। आज के विषय तो केवल नौकरी के साथ ही जुडक़र रह गए। जीवन तो बाहर ही निकल गया। हमारे यहां ज्ञान की अवधारणा में ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय सदा साथ रहते हैं। ज्ञान के सारे प्रयोग व्यक्ति स्वयं पर करता है। विज्ञान की तरह उपकरणों से नहीं करता, जहां वैज्ञानिक स्वयं प्रयोग से बाहर रहता है। ज्ञान और धर्म के प्रयोग मानवता के लिए कल्याणकारी होते हैं। विज्ञान के प्रयोग किसी भी दिशा में ले जा सकते हैं। वहां संकल्प नहीं है। बिना संकल्प के भाव को नहीं जोड़ा जा सकता। इसके बिना क्रिया की दिशा कौन तय करेगा? बुद्धि?
वर्तमान में जीना
इच्छा-भाव-क्रिया-शब्द ये ही तो जीवन के स्पन्दन हैं। आकृति, प्रकृति और अहंकृति में से किसी एक को बदलने से अन्य दो भी बदल जाते हैं। भाव-क्रिया और शब्द में से भी किसी एक को बदलकर अन्य दो को बदला जा सकता है। चूंकि क्रिया सारी ही स्पन्दन पर टिकी है और ये मूल स्पन्दन तो हमारे नियंत्रण से बाहर हैं, अत: व्यक्ति इनको आसानी से नहीं बदल सकता। भावों को भक्ति योग से बदला जा सकता है, किन्तु वहां भी क्रिया के स्पन्दन होते हैं।
मानव के लिए एक ही सरल मार्ग है कि वह संकल्प करके शब्द का सहारा ले और ब्रह्म तक पहुंच जाए। संकल्प के सहारे ही आसक्ति और अहंकार पर विजय पाना संभव है। इसके बिना न तो स्मृति छूटेगी, न ही कल्पना। व्यक्ति वर्तमान में कभी जी नहीं पाएगा। ध्यान लगेगा ही नहीं। ध्यान एकान्त में करने की बात नहीं है। यह तो जीवन का अंग होना चाहिए। जो भी कार्य हाथ में लें, उसके साथ मन भी जुड़ा रहे। न कोई अतीत, न अनागत। जीवन स्वत: ही ध्यान में परिवर्तित हो जाएगा। बिना मन के किया गया कार्य शुभ फल तो दे ही नहीं सकता। कारण भी राग-द्वेष-अहंकार ही हैं। जिसने वर्तमान में जीना सीख लिया, उसके लिए समाधि सहज परिणाम है।
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