आज भी देश को भारत में जन्मे अंग्रेजी मानसिकता के लोग ही चला रहे हैं। उनको तो शासन करना है बस, भारत से कोई लेना-देना नहीं है। उनको इंसान और इंसानियत से सरोकार ही नहीं है। कागज के टुकड़े इकट्ठे करना ही उनका मनोरंजन है। इसी को भोग मानते हैं, सुख मानते हैं, जीवन का लक्ष्य मानते हैं। शेष जीवन भोग्य सामग्री रह गया है। इसका परिणाम यह हुआ कि जीवन की गहनता सिमट गई और उसका स्थान छिछलेपन ने ले लिया। क्या आर्थिक विकास अथवा बढ़ता शैक्षणिक वातावरण इसका कारण है? तकनीक ने भी अपनी भूमिका निभाई है।
शिक्षा ने दिल के दरवाजे बन्द कर दिए। कैरियर की होड़ में संवेदना की बलि चढ़ गई। व्यक्ति बुद्धिजीवी तो बहुत हो गया, किन्तु मन से नीरस हो गया। जब वह कम्प्यूटर से जुड़ा, तो मानो पथरा गया। अब उसे व्यक्ति दिखाई पडऩा ही बन्द हो गया। कम्प्यूटर के आगे आदमी बौना हो गया। उसका महत्व घट गया। फिर कुछ अच्छे पदों का प्रभाव, व्यक्ति में अहंकार भर गया। थोड़ा आर्थिक विकास हुआ, तो समाज छोटा हो गया। खरीदने की सामग्री बन गया। शरीर पुतले रह गए-जीवन खो गया।
महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि यह सारा परिवर्तन इतना तेजी से हुआ कि व्यक्ति स्वयं इतनी तेजी से नहीं बदल पाया। उसकी पहचान पिछड़ेपन की हो गई। जो बदल गया, उसका जीवन के प्रति दृष्टिकोण, व्यक्ति के चिन्तन का महत्व, दूरदर्शिता की भूमिका और संवेदना का धरातल पीछे छूटता चला गया। मन में एक-दूसरे के प्रति सम्मान, सहयोग का भाव जैसे मानवीय गुण अर्थहीन होने लगे। सामाजिक रूप ही सिमट गया। व्यक्ति कम्प्यूटर तक सिमट कर रह गया।
धनबल, भुजबल, सत्ता का अहंकार और स्वच्छन्दता का अधिकार – तब कैसा मर्यादा बोध-नैतिकता के प्रति, प्रकृति के प्रति उत्तरदायित्व का बोध! सबकुछ, मर्जी के आगे ध्वस्त होता जा रहा है। अब व्यक्ति का लक्ष्य अलग हो गया। न समाज, न देश। रह गया केवल स्वयं का भोगपूर्ण जीवन। उसमें किसी अन्य का महत्व नहीं रह जाता। हर आदमी का अपना एक मोल रह गया- मजदूरी जैसा। उसके मन का जुड़ाव, प्रतिबद्धता, पुरानापन सब समय के गर्त में दब गए। इसी को आज विकासशील समाज कहते हैं। हर अच्छे कार्य का फल व्यक्ति स्वयं खाना चाहता है। यही भारतीयता की दृष्टि से गिरावट की हद है। वह अपने फल समाज के साथ बांटना ही नहीं चाहता। माली भी खा जाए तो चोर कहलाएगा।
इस सारे नए परिवेश में देश दो तरह की मानसिकता में बंट रहा है। एक धड़ा समाज व्यवस्था के साथ परम्परागत ढंग से जीने का प्रयास कर रहा है, वहीं दूसरा धड़ा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का झंडा लिए, परम्परा के विरुद्ध जीने को उतावला है। देश की संस्कृति उसके चिन्तन का अंग नहीं है। देश में सत्ता, शिक्षा, धन सभी कुछ इस वर्ग के हाथ में है। यही वर्ग अंग्रेजी मानसिकता का प्रतिनिधि है, जिसे जीवन और प्रकृति के सम्बन्धों की जानकारी भी नहीं है और देश का भविष्य भी इसकी चिन्ता का विषय नहीं है। न देशवासियों की प्रतिक्रिया के प्रति सचेत ही है।
व्यक्ति स्वच्छन्दता का वरण करके पशु की श्रेणी में पहुंचने लगा। उसे अपनी स्वतंत्रता तो चाहिए, किन्तु बिना किसी तंत्र या अंकुश के। शिक्षा ने उसका आत्मिक धरातल छीन लिया। अब वह हाड़-मांस का खाली डिब्बा रह गया। शरीर ही पहचान और शरीर के लिए ही भोग। समाज में रहते हुए उन मर्यादाओं से मुक्ति चाहिए, जो स्वच्छन्दता में बाधक है। अत: भौतिक सुखों वाले विकसित, व्यक्तिवादी उपभोक्तावादी चिन्तन को यहां भी कानूनी जामा पहनाने के लिए कानून का सहारा लिया जाना जरूरी था।
इस देश की यह विडम्बना ही है कि हमारे अधिकांश सामाजिक कानून समाज को बिना विश्वास में लिए बनाए जाते रहे हैं। इन कानूनों की सार्थकता पर कभी सामाजिक बहस नहीं हुई। किसी को आवश्यकता भी नहीं लगी। यह डर भी था कि कहीं समाज ही भडक़ न जाए। लोकतंत्र के तीनों पाए भी उसी अंग्रेजियत के शिकार हैं, समान दृष्टिकोण रखने वाले हैं। समाज के साथ इनका सीधा कोई सम्पर्क वैसे भी नहीं है। फाइलों का पेट भरने तक ही आस्थावान हैं। सरकारी खर्चे पर तीर्थाटन करने वाले हैं। कथनी केवल जनता के लिए, करनी से भोगवादी।
मर्यादा में तो भोग भी आवश्यक है। प्रकृति ने यह सुविधा दे रखी है। सभी प्राणियों को दे रखी है। सब प्राणी एक मर्यादा में भोग करते हैं। केवल मानव ही मनमानी करता है। पिछले वर्षों में जिस प्रकार के सामाजिक कानूनों में परिवर्तन हुए वे विकासशील लोगों की स्वच्छन्दता के प्रतीक अधिक हैं। जो कुछ पहले था, आज भी है, कल भी रहेगा। हां लिव-इन-रिलेशन, समलैंगिकता, परस्त्री-पुरुष गमन की सुविधा को भले ही कुछ लोग व्यक्तिगत स्वतंत्रता मान लें, इनका अन्तिम परिणाम जीवन को गर्त में डालना ही होगा। नैतिक जीवन की आत्म-हत्या। क्योंकि व्यक्ति प्रकृति में स्वतंत्र इकाई नहीं है, जैसा कि वह मानकर चलता है।
सूर्य हमारा पिता है और हमारा जन्म उसी धरातल पर होता है। वहां से चलकर हम पांचवें स्तर पर स्थूल देह धारण करके संसार में आते हैं। न मर्जी से जन्म लेते हैं, न मरते हैं। प्रकृति के साथ चलकर ही सहज जीवन जी सकते हैं। जब मनमानी ही हमारी बुद्धिमानी बन जाती है, तो ईश्वर भी साथ छोड़ देता है। प्रलय की शुरुआत हो जाती है। एक सड़े सेब से टोकरी के सभी सेब बदबू मारने लग जाते हैं।