सृष्टि का आधार
संगीत का आधार भी ध्वनि है और शब्द का आधार भी ध्वनि ही है। सच पूछो तो सृष्टि का आधार भी ध्वनि या नाद ही है। इसका रहस्य हमारी वर्णमाला में छुपा हुआ है। हमारी वर्णमाला एक विशेष सिद्धान्त पर आधारित है। इसीलिए हमारे मंत्रों का भी महत्त्व है। मंत्रों का महत्त्व शब्दों के गठन से नहीं है, भाषा से नहीं है, अपितु उनके उच्चारण से होने वाले ‘नाद’ से है। यह नाद ही प्रभावशाली तत्त्व है। हमारे शरीर मेंं अनेक प्रकार के नाद सुनाई पड़ते हैं। एक नाद होता है जो दो या अधिक चीजों के टकराने से होता है। आमतौर पर इसी को ध्वनि की संज्ञा दी जाती है। एक नाद स्वत: ही होता है, जिसे ‘अनहद’ नाद के रूप में जाना जाता है।
नाद आकाश का गुण होता है। नाद वाक्-संसार का उत्पादक कहलाता है। इसीलिए वाक्देवी सरस्वती इसकी अधिष्ठात्री है। वाक् में तो अर्थवाक् भी आता है, जो यह सिद्ध करता है कि शब्द से ही अर्थ की उत्पत्ति होती है। दोनों एक ही हैं, केवल स्वरूप की भिन्नता है। हमारे शरीर में अनेक चक्र हैं या शक्ति के केन्द्र हैं, जो वातावरण से ऊर्जा ग्रहण करते हैं और हमारे शरीर, मन और बुद्धि को चलाते हैं, हमारा सम्बन्ध सृष्टिï से बनाए रखते हैं। इनको भी वर्णमाला के अक्षरों में ही विभाजित किया गया है।
सभी ध्यान और साधना पद्धतियों के मूल ध्वनि, नाद और बिन्दु हैं। नाद ब्रह्म को कहा जाता है, बिन्दु माया को। व्यक्ति आत्मा की खोज में बिन्दु के माध्यम से इसी नाद-ब्रह्म में लीन हो जाता है। ध्वनि के साथ ही शरीर में स्पन्दन शुरू होता है। यह स्पन्दन ही अपना प्रभाव मन पर डालता है। मन इन्द्रियों का राजा है। हर इन्द्रिय अपने प्रभाव को प्राणों के द्वारा मन तक ले जाती है। अच्छा-बुरा लगना तो मन का स्वभाव है। मन की इच्छा शक्ति ही स्मृति का आधार भी बनती है। यही स्मृति उसकी कल्पना का आधार होती है।
यदि आपकी स्मृति में कोई ज्ञान नहीं है तो मन में इच्छा कैसे उठेगी? इच्छा ही मन के लिए बीज का कार्य करती है। स्पन्दन को समझने के लिए ध्वनि को समझना होगा। स्पन्दन हमारे नित्य परिवर्तन का कारण बनते हैं, अत: इनका कौनसा स्वरूप ग्रहण करने योग्य है और कौनसा ग्रहण नहीं किया जाए, इसका चिन्तन करना हितकर होगा। आज हम रेडियो, टेलीविजन अथवा टेप से कुछ भी सुन लेते हैं। जाने-अनजाने ही ये स्पन्दन हमारा व्यक्तित्व बदल डालते हैं।
ध्वनि की शक्ति
हम प्रकम्पनों का जीवन जी रहे हैं। शरीर के भीतर प्रकम्पन ही तो भरे हैं। शरीर की तरंगें, श्वास की तरंगें, विचारों की तरंगें, ध्वनि की तरंगें। हम तरंगों का ठीक उपयोग करें। उनकी शक्ति का, अर्थात्—ध्वनि की शक्ति का उपयोग सीखें। जब ध्वनि की तरंगें मन के साथ जुड़ जाती हैं, श्वास और संकल्प इन तरंगों के साथ जुड़ जाते हैं, तब ध्वनि एक बड़ी शक्ति के रूप में दिखाई देती हैं। शब्द की सिद्धि आस्था की शुद्धि से होती है। आस्थाहीन शब्द शक्ति-शून्य होते हैं। शक्तिमान क्या नहीं कर सकते? आज तो पाश्चात्य विद्वानों ने संगीत को अनेक श्रेणियों में बांट दिया है। इसके विविध रूप हमारे सामने रख दिए, किन्तु क्या ये रूप हमारे लिए हितकर हैं? यही हाल हमारे सिनेमा के संगीत का भी है। हम एक ही गाने को सालों तक गाते रहते हैं।
कालान्तर में वह गायन लुप्त हो जाता है, किन्तु चिरकाल से चले आ रहे भारतीय संगीत के नादमय आकर्षण आज भी सभा को स्तब्ध करने में समर्थ हैं। संगीत का प्रभाव शरीर के अलग-अलग चक्रों को उत्तेजित करता है।
इसी के अनुरूप हमारे शरीर में ऊर्जा पैदा होती है और हमारे विचारों का मार्ग प्रशस्त करती है। आज तो कुछ संगीत ऐसे भी आ गए हैं जो मूलाधार से सहस्रार तक के सभी चक्रों को क्रमश: उत्प्रेरित करते हैं। ये साधकों के लिए विशेष उपयोगी हैं। किन्तु, अधिकांश संगीत हमारे शरीर-तंत्र को ही प्रभावित करता है। मन तक उसकी पहुंच नहीं होती।
मंत्र का नित्य जाप भी इसी क्रम में देखा जाना चाहिए। ध्वनि या शब्द का ज्ञान हमारे ज्ञान की अनेक खिड़कियों को खोलता है।