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धर्म और अध्यात्म

स्पंदन – तन्मयता

हमारा भावनात्मक और मानसिक तनाव बढ़ता जा रहा है। स्वभाव की उग्रता बढ़ती जा रही है। हमारे लक्ष्य में तो स्थिरता होनी चाहिए, एकाग्रता होनी चाहिए और उससे भी आगे विषय के प्रति तन्मयता होनी चाहिए।

जयपुरNov 16, 2018 / 07:52 pm

Gulab Kothari

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मन स्वभाव से चञ्चल है। परिवर्तनशील भी है। हर पल बदलता रहता है। पल-पल में मरता है—नया पैदा होता है। चञ्चलता उसका स्वभाव है। मन का सम्बन्ध आत्मा से है, भावों से है और शरीर से भी है। इनमें से एक भी अस्थिर हो तो मन चञ्चल ही रहेगा, एकाग्रता कैसे पैदा होगी? हमारा जीवन जैसे-जैसे बुद्धि प्रधान होता जा रहा है, वैसे-वैसे हमारी स्मृति, कल्पना और चिन्तन में अनेक अनावश्यक विषय बढ़ते जा रहे हैं। हमारा भावनात्मक और मानसिक तनाव बढ़ता जा रहा है। स्वभाव की उग्रता बढ़ती जा रही है। हमारे लक्ष्य में तो स्थिरता होनी चाहिए, एकाग्रता होनी चाहिए और उससे भी आगे विषय के प्रति तन्मयता होनी चाहिए। तन्मयता का अर्थ है, विषय के साथ मिलकर एक हो जाना।
इसी प्रकार भौतिक सुखों के प्रति बढ़ता आकर्षण भी हमारी चञ्चलता का कारण बनता है। शरीर के प्रति बढ़ता ममत्व शरीर को साधन की जगह साध्य बना देता है। इसके प्रति हमारा अनुराग बढ़ रहा है। वर्ण, रस, गंध और स्पर्श के स्पन्दन बढ़ रहे हैं, जो हमारी भावनात्मक वृत्तियों में चञ्चलता का सूत्रपात करते हैं।
सुख की चाह
सुविधा हमारे शरीर को चञ्चल बनाती है। परिवर्तनशील ऋतु-क्रम के प्रति भी हम इतने संवेदनशील हो जाते हैं कि हर असुविधा को कष्ट मानते हैं। स्थिरता है ही नहीं। इसके विपरीत, सुख तो सभी चाहते हैं और सुख से बड़ा है—आनन्द, भाव-विभोर हो जाना। इसका प्रवेश द्वार है—तन्मयता।
विषय के प्रति, साध्य के प्रति। आज मीरा या सूरदास यदि जाने जाते हैं तो अपनी तन्मयता के लिए, आराध्य के साथ अभिन्नता के लिए। तन्मयता ही जीवन की सफलता का सूत्र हो सकती है। अर्जुन के लक्ष्य की तरह मछली की आंख के अलावा कुछ नहीं दिखाई पड़े, यही लक्ष्य की तन्मयता है। यही मन की स्थिरता है, विचारों की एकाग्रता है। व्यक्ति का मनोबल, शरीर की ऊर्जाएं इसी तन्मयता के कारण उसके भाग्य का निर्माण करती हैं।
तन्मयता के लिए शरीर की स्थिरता का अभ्यास, आसन, प्राणायाम, आचरण-शुद्धि तथा आहार-विहार का चिन्तन-मनन करना भी आवश्यक है। शरीर के स्थिर होते ही ध्यान भावों अथवा विषयों की ओर जाने लगता है। विषय का चिन्तन-मनन, विषय के प्रति श्रद्धा का भाव मन में शुद्ध, सकारात्मक भाव पैदा करता है। भावों की शरीर में रासायनिक क्रिया-प्रतिक्रिया होती है और शरीर के स्वभाव व स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डालती है। यही प्रभाव पलटकर मानसिक तन्त्र को प्रभावित करता है। एक चक्र चलता रहता है।
रुचि और संकल्प
मन की चञ्चलता ही हमारी अधिकांश अनावश्यक क्रियाओं को जन्म देती है। अनावश्यक बोलना उनमें से एक प्रमुख संकेत है। मन, वचन और काया में इस ‘वचन’ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस पर नियंत्रण करके भी हम चञ्चलता को बहुत कम कर सकते हैं।
बोलते रहने से एकाग्रता अधिक समय तक नहीं ठहर सकती। चुप रहकर व्यक्ति घंटों एकाग्र रह सकता है। इसी प्रकार अन्य ज्ञानेन्द्रियों का अनावश्यक योग भी चञ्चलता को बढ़ाता है। इस चञ्चलता का निरोधक है एकाग्रता। एकाग्रता का पहला पाठ है- विषय में रुचि होना। यद्यपि रुचि होना भी स्वाभाविक नहीं है। विषय में रुचि पैदा भी की जा सकती है। इससे एकाग्रता बढ़ती है। इसके लिए अभ्यास की आवश्यकता है। विषय की उपयोगिता पर विचार करने की आवश्यकता है। परिणामों की उपयोगिता समझ में आते ही विषय रुचिकर लगने लग जाएंगे। एकाग्रता बढऩे लगेगी। विषय में श्रद्धा भाव का प्रवेश होगा। विषय और व्यक्ति दो से एक होने की दिशा में अग्रसर होने लगेंगे। जैसे-जैसे एकाग्रता बढ़ती जाएगी, अभिन्नता का आभास बढ़ेगा, तन्मयता बढ़ेगी, व्याकुलता बढ़ेगी— दो से एक हो जाएंगे। यद्यपि समय तो लगेगा।
एकाग्रता का होना ही काफी नहीं है। इसके साथ जागरूकता का भाव भी आवश्यक है। जागरूकता के बिना एकाग्रता का लाभ नहीं होगा। जागरूकता ही व्यक्ति की भावनात्मक-क्षमता का विकास करती है। विषय की गहराई में ले जाती है। इससे संकल्प दृढ़ होता जाएगा। रुचि और संकल्प ही तो जागरूकता पैदा करने वाले तत्त्व हैं, इसी से विषय के मनन का मार्ग प्रशस्त होता है। श्रद्धा बढ़ती है, कर्म लक्षित होता है। ध्यान एकाग्र होता है। अन्य विषयों से दृष्टि हटाने की क्षमता जाग्रत होती है। भावनात्मक स्थिरता पैदा होती है। मन स्थिर होता है। आप विषय में प्रवेश करते हैं और विषय आप में।
एकाग्रता का सूत्र
जीवन केवल भौतिक सम्पदा ही नहीं है, इसमें आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिकता का सम्मिश्रण रहता है। जब तक हम इन तीनों को नहीं समझेंगे, इसके स्वरूप और प्रभावों को नहीं समझेंगे, स्थिरता का अभ्यास नहीं कर पाएंगे। इसके लिए शरीर को समझना, मन को समझना, आत्मा को समझना, इनके कार्यों और प्रभावशीलता को समझना आवश्यक है।
इसके लिए मात्र एकाग्रता कम पड़ती है। दृढ़ संकल्प के साथ तन्मयता भी आवश्यक है। नियमित अभ्यास और जागरूकता के विकास की तथा विषय के साथ एकाकार होने की भी जरूरत है। ध्येय और ध्याता एक हो जाएं, सत्य की खोज का यही एक मार्ग है।
इस कार्य को सरल रूप में देखने का अभ्यास किया जा सकता है। आप क्या बनना चाहते हैं, किस महान्ï व्यक्ति की तरह बनना चाहते हैं और बनकर क्या करना चाहते हैं, इसका मनन हो सकता है। आप उस महान् आत्मा के जीवन-दर्शन को अपने जीवन में साक्षात् करें, उस व्यक्तित्व को स्वयं में प्रविष्ट करके देखें। इसके अतिरिक्त स्वयं का परिवर्तन देखें, संकल्प दोहराते रहें, अपने नए व्यक्तित्व के प्रति जागरूकता बनाए रखें। प्रयत्न करें कि आपका यह क्रम प्रतिदिन हर कार्य में बना रहे। हर कार्य में जागरूकता का यह भाव—देखते हुए और जानते हुए करने का भाव, बना रहेगा तो अनजाने में कुछ अन्यथा नहीं होगा। यही एकाग्रता का सूत्र होगा, इसी से तन्मयता आएगी, आपका पुरुषार्थ बढ़ेगा, मनोबल बढ़ेगा, आप भयमुक्त होंगे और अपने ध्येय को प्राप्त कर सकेंगे।

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