मन में जब भी कोई इच्छा पैदा होती है, तब विचार शुरू हो जाते हैं। इच्छा पूरी करें अथवा न करें। विचारों का एक तुलनात्मक अध्ययन शुरू हो जाता है। पुराने अनुभव अपना प्रभाव दिखाने लगते हैं। अनेक समीकरण बनते हैं, अनेक शंकाएं उठती हैं। विषय के प्रति हमारी मानसिकता की भी अपनी भूमिका होती है। फिर सोचने की भी सबकी अपनी क्षमता होती है। इच्छा पूर्ण करके क्या प्राप्त करना है, क्यों प्राप्त करना है, कैसे प्राप्त करना है, आदि प्रश्न भी मन में उठते हैं।
पूर्णता की तलाश
जीवन में एक मार्ग है सरलता का और दूसरा मार्ग है पूर्णता का। सरलता का मार्ग पेचीदा नहीं है। एक तो पूर्णता कभी आती ही नहीं और दूसरी बात यह कि पूर्णता की तलाश में हम नई-नई बाधाओं को निमंत्रण देते रहते हैं। सुख की तलाश में व्यक्ति पूरी उम्र दु:ख पाता रहता है। वह सुख को कभी परिभाषित नहीं कर पाता। कोई वस्तु या व्यक्ति उसे सुखी नहीं कर पाते।
बहुत बार देखने में आता है कि हम अपनी बुद्धि का अनावश्यक उपयोग करने लगते हैं। भले ही शरीर स्वस्थ नहीं है पर बुद्धि उसी में लगी रहती है। यहां तक कि कोई उपाय ढूंढ़कर शरीर को नए कष्ट देना शुरू हो जाता है। हम शरीर को एक प्रयोगशाला बना डालते हैं। यह भी भान नहीं रहता कि शरीर में अपने आप व्याधि से उबरने की क्षमता भी है अथवा नहीं।
इसी प्रकार हमारे मन की भूमिका है। सुख-दु:ख का आभास हमारे शरीर या बुद्धि को नहीं होता। न ही कोई इच्छा यहां पैदा होती है। इच्छा तो केवल मन में ही पैदा होती है। अत: हमारे मन का शिक्षण होना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। किसे वह सुख माने और किसे नहीं माने, इसका भी अभ्यास होना चाहिए।
इसका एक सरल उपाय है, बच्चों की कहानियां पढऩा। विशेषकर पौराणिक एवं लोक कथाओं का अध्ययन। इनमें मृदुता और लालित्व भाव होता है, जीवन के हितकारी अध्याय देखे जा सकते हैं। मन भी बहुत लगता है, इनको पढऩे में। इनका प्रभाव भी खूब होता है। फिर, हर व्यक्ति में कुछ न कुछ बाल-भाव होता ही है।
दूसरा मार्ग है—स्वाध्याय। शांत बैठकर चिंतन करना, स्वयं के बारे में स्वयं से प्रश्न करना। जीवन का मार्ग तय करना—घर में, कार्य में, समाज में, देश में और सृष्टि के अंश रूप में। जीवन की उपयोगिता का मार्ग निश्चित करना। अहंकार का समर्पण करना। सकारात्मक भावों की निरंतरता बनाए रखना। जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदलने में यह मार्ग बहुत सहायक सिद्ध होगा। दायित्व बोध जागृत होगा और जीवन के प्रति एक स्पष्ट दृष्टिकोण बनेगा। द्वंद्व घटेंगे और जीवन का सरलीकरण होगा।
संतुष्टि का मार्ग
यह तो सही है कि हर कार्य के लिए विचार करना आवश्यक है और इसी का एक अंग द्वंद्व भी होता है। सदा हमें बीच का मार्ग लेना पड़ता है। यह हमारी संतुष्टि का मार्ग होता है। कई बार कार्य करते समय हम निर्णय करने में स्वतंत्र नहीं होते। हमें केवल कार्य करना होता है। कई बार निर्णय लेने के बाद भी अन्य साथियों के विचारों को उचित स्थान देना पड़ता है। कई बार कार्य की आवश्यकता ही ऐसी होती है कि करते रहने पर भी द्वंद्व बना ही रहता है।
जीवन अनुभवों की प्रयोगशाला भी है। ये अनुभव ही व्यक्ति को हर बार नया ‘आइडिया’ देते हैं। ये ही व्यक्ति की सृजनात्मक भूमिका बनाते हैं। यदि हम हमारे चिंतन का मार्ग निश्चित कर लें तो हम शांति के क्षणों में ढेर सारे ‘आइडिया’ एकत्रित कर सकेंगे, अनेक समाधान ढूंढ़ लेंगे। वैसे ‘आइडिया’ तो आते ही रहते हैं, किन्तु उनकी सार्थकता समझना आवश्यक होता है। ‘आइडिया’ दिमाग की उपज है। इसके लिए दिमाग कई तरह के तर्क दे सकता है, कई तर्क काट सकता है। ‘आइडिया’ पर जोर देने वालों को अपनी इच्छा, अपने मन की भूमिका पर भी कुछ ध्यान देना पड़ेगा। ‘आइडिया’ के उपयोग में लेने से जो परिणाम आएंगे, वहां मन दृष्टि गोचर होता है। प्रभाव मन पर ही होता है। आज के वैज्ञानिक साहित्य में मन का स्थान छोटा हो गया है। जिसे हम मनोविज्ञान कहते हैं उसमें भी अधिकांशत: दिमाग का ही क्षेत्र होता है। हमारा कार्य ही नहीं अपितु दायित्व है कि हम हर ‘आइडिया’ को पहले मन के तराजू पर तोलें, फिर मन का निर्णय सुनें।
आम-तौर पर हमारे कानों पर मन की आवाज जाती ही नहीं है। जैसे-बोलते समय हमारी बात सब सुनते हैं, किन्तु हम नहींं सुनते। मन का निर्णय गलत नहीं होता। हमें मन से मित्रता बढ़ानी चाहिए, उसे समझेंगे तो हमारे विचार सदा सही निकलेंगे।
मन को तोलना आता है। सही-गलत का भेद करना आता है। अच्छे-बुरे की पहचान करना आता है। मन के साथ ही तो हमारा अस्तित्व जुड़ा है। यह शरीर और बुद्धि, मन और आत्मा की ही तो अभिव्यक्ति है।
चूंकि आत्मा मरती नहीं है, ईश्वरीय अंश है, अत: उसके निर्णय गलत नहीं जाएंगे। हमें मन की भाषा मात्र समझने की जरूरत है।