scriptयोग-5 | Yoga 5 | Patrika News
धर्म और अध्यात्म

योग-5

सृष्टि में तो एक ही मन है जिसे अव्यय पुरुष (कृष्ण) का मन कहते हैं। वही हम सबका आत्मा है। हमारा अपना, किसी का कोई मन नहीं होता।

Jun 20, 2018 / 11:03 am

Gulab Kothari

yoga,Gulab Kothari,religion and spirituality,gulab kothari articles,special article,rajasthan patrika article,

yoga medidation samadhi

योग का लक्ष्य है मन को समाप्त कर देना। कामना से मुक्त हो जाना। प्रश्न यह उठता है कि क्या हम मन के स्वरूप को समझते हैं। सृष्टि में तो एक ही मन है जिसे अव्यय पुरुष (कृष्ण) का मन कहते हैं। वही हम सबका आत्मा है। हमारा अपना, किसी का कोई मन नहीं होता। अत: श्वोवसीयस मन ही सत्य है, शेष सभी प्राणियों के मन मिथ्या हैं, नश्वर हैं। तब मरे हुए को मारना ही योग का लक्ष्य है क्या? आज का मनोविज्ञान भी इस नश्वर मन की जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति अवस्थाओं पर ही तो टिका है। शाश्वत मन की बात कौन करता है? यह शाश्वत मन ही तो मेरे भीतर ईश्वर का अंश है। इसी पर अक्षर और क्षर की कलाएं चढ़ी हुई हैं, त्रिगुण के आवरण हैं, पंचकोश खड़े हैं। माया के भिन्न-भिन्न रूप ही हमारे नाम-रूप हैं। योग इन नाम-रूपों को समझते हुए अपने निज स्वरूप तक पहुंचने का मार्ग है।
मन के रूप
आश्चर्य की बात क्या है कि पहली सदी के पतंजलि और २१ वीं सदी के ओशो ने कहीं भी मन के अव्यय स्वरूप की व्याख्या योग के सन्दर्भ में नहीं की। आधुनिक मनोविज्ञान का विषय तो स्थूल इन्द्रिय मन ही है। मन, जो हर इच्छा के साथ पैदा होता है और प्रत्येक इच्छापूर्ति के साथ मर जाता है। जब यह मन मर जाता है तब क्या योग की उपादेयता समाप्त हो जाती है अथवा मनोविज्ञान अपनी सार्थकता खो देता है? क्या वेद में वर्णित ‘हृदय’ की भी कोई भूमिका मनोविज्ञान में अथवा योग में है? कृष्ण कहते हैं कि अनासक्त मन हृदय में स्थापित हो जाता है। वेद में तो श्वोवसीयस मन के अलावा भी मन के अन्य रूप भी हैं। इन्द्रिय मन, सर्वेन्द्रिय मन अथवा अनिंद्रिय मन, अतीन्द्रिय मन, सत्व मन या महन्मन आदि। गीता के अनुसार श्वोवसीयस मनोमूर्ति अव्ययेश्वर सत्वमन रूप महान् में प्रतिष्ठित रहते हैं।
एक अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि जिस प्रकार श्वोवसीयस मन अव्यय सृष्टि का है, उसी प्रकार इन्द्रिय मन का स्वरूप निर्माण २७ वें स्तोम पर व्याप्त पार्थिव स्तोम से ही होता है। इसी तरह यह भी समझने की जरूरत है कि प्रत्येक इन्द्रिय के व्यापार भले ही भिन्न हों, किन्तु सुख-दु:ख, भय आदि को तो सर्वेन्द्रिय मन में अनुभव किया जाता है। इसी को अतीन्द्रिय मन भी कहते हैं। सर्वेन्द्रिय मन की शक्ति चान्द्र सोम में निहित रहती है। जो मन सुषुप्ति दशा में भी जो श्वास-प्रश्वास, रक्त संचार आदि बना रहता है। जिस ज्ञानीय कामना से ये सत्वगुणी व्यापार बने रहते हैं, वह परमेष्ठी के महानात्मा का सत्व मन है। इसी को भीतर का मन कहा जाता है। चान्द्र सोम प्रभावित प्रज्ञान अथवा सर्वेन्द्रिय मन बाहरी या ऊपर का मन कहा जाता है। इन्हीं को मन्मना एवं उन्मना मन कहते हैं।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण: ॥ गीता-९/३४

इस प्रकार पृथ्वी, चन्द्र, परमेष्ठी तथा हृदयस्थ बलगर्भित रस से चार मन इन्द्रिय मन, सर्वेन्द्रिय मन, महन्मन तथा सत्व मन बन रहे हैं। इन्हीं को मन, प्रज्ञान, सत्व तथा आत्मा कहा जाता है। जिस मन को योग शास्त्र में मन कहा जाता है, वह पार्थिव ‘मन’ है। हमारा आज का मनोविज्ञान इस भूत, स्थूल, अथवा पार्थिव मन पर ही टिका है। भारतीय मनोविज्ञान इसके आगे की तीन धाराओं का विश्लेषण करता हुआ श्वोवसीयस मन पर विश्राम ले रहा है।
नए शोध जरूरी अव्यय मन की योनि या प्रतिष्ठा परमेष्ठी महान ही है। इसी के गर्भ में अक्षर-क्षर समाहित रहते हैं। अव्यय पुरुष गर्भ धारण करते हैं इस महान में। गीता में कृष्ण कहते हैं-
मन योनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्।
सम्भव: सर्वभूतानां ततो भवति भारत! ॥
सर्वयोनिषु कौन्तेय! मूर्तय: संभवन्ति या:।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता ॥ गीता-१४/३-४

इस मनोमय काम का मूल बीजत्व भी आपोमय महान् पर ही अवलम्बित है। बीज पानी से ही अंकुरित होता है। इसीलिए कामना को मन का बीज कहा जाता है। यह अव्यय मन सम्पूर्ण सृष्टि में एक ही है। अन्य मन तथा सभी प्राणी इसके विकार मात्र हैं। यह मन कभी मरता नहीं। यही हम सबका आत्मा है। इसी को कृष्ण-‘ममैवांशे जीवलोके, जीवभूत: सनातन:।’ कह रहे हैं। क्षर एवं अक्षर सृष्टि का अपना कोई मन है ही नहीं। जिसे हम अपना मन कह रहे हैं, वह श्वोवसीयस मन का ही प्रतिबिम्बित मन है। इन्द्रिय मन है। तब योग की अवधारणा इस मन से यदि आगे नहीं बढ़ी तो इसमें आश्चर्य क्या है।
यही कारण है कि चाहे योग शास्त्र हों अथवा मनोविज्ञान हमेशा परिधि पर चक्कर काटते रहेंगे। केन्द्र की ओर गति करने की, अव्यय मन को प्रकट करने की क्षमता इनमें है ही नहीं। इन अवधारणाओं को नए सिरे से परिभाषित करना होगा। नए शोध कार्य हाथ में लेने पड़ेंगे जिनमें सिद्धान्त के साथ-साथ ध्यान और समाधि का भी व्यावहारिक ज्ञान समाहित करना होगा। स्थूल के माध्यम से सूक्ष्म की यात्रा हाथ में लेनी पड़ेगी। नहीं तो पृथ्वी का योग पृथ्वी पर ही रह जाएगा। यह योग तो मुक्त नहीं करेगा।
loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो