आश्चर्य की बात क्या है कि पहली सदी के पतंजलि और २१ वीं सदी के ओशो ने कहीं भी मन के अव्यय स्वरूप की व्याख्या योग के सन्दर्भ में नहीं की। आधुनिक मनोविज्ञान का विषय तो स्थूल इन्द्रिय मन ही है। मन, जो हर इच्छा के साथ पैदा होता है और प्रत्येक इच्छापूर्ति के साथ मर जाता है। जब यह मन मर जाता है तब क्या योग की उपादेयता समाप्त हो जाती है अथवा मनोविज्ञान अपनी सार्थकता खो देता है? क्या वेद में वर्णित ‘हृदय’ की भी कोई भूमिका मनोविज्ञान में अथवा योग में है? कृष्ण कहते हैं कि अनासक्त मन हृदय में स्थापित हो जाता है। वेद में तो श्वोवसीयस मन के अलावा भी मन के अन्य रूप भी हैं। इन्द्रिय मन, सर्वेन्द्रिय मन अथवा अनिंद्रिय मन, अतीन्द्रिय मन, सत्व मन या महन्मन आदि। गीता के अनुसार श्वोवसीयस मनोमूर्ति अव्ययेश्वर सत्वमन रूप महान् में प्रतिष्ठित रहते हैं।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण: ॥ गीता-९/३४ इस प्रकार पृथ्वी, चन्द्र, परमेष्ठी तथा हृदयस्थ बलगर्भित रस से चार मन इन्द्रिय मन, सर्वेन्द्रिय मन, महन्मन तथा सत्व मन बन रहे हैं। इन्हीं को मन, प्रज्ञान, सत्व तथा आत्मा कहा जाता है। जिस मन को योग शास्त्र में मन कहा जाता है, वह पार्थिव ‘मन’ है। हमारा आज का मनोविज्ञान इस भूत, स्थूल, अथवा पार्थिव मन पर ही टिका है। भारतीय मनोविज्ञान इसके आगे की तीन धाराओं का विश्लेषण करता हुआ श्वोवसीयस मन पर विश्राम ले रहा है।
नए शोध जरूरी अव्यय मन की योनि या प्रतिष्ठा परमेष्ठी महान ही है। इसी के गर्भ में अक्षर-क्षर समाहित रहते हैं। अव्यय पुरुष गर्भ धारण करते हैं इस महान में। गीता में कृष्ण कहते हैं-
सम्भव: सर्वभूतानां ततो भवति भारत! ॥
सर्वयोनिषु कौन्तेय! मूर्तय: संभवन्ति या:।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता ॥ गीता-१४/३-४ इस मनोमय काम का मूल बीजत्व भी आपोमय महान् पर ही अवलम्बित है। बीज पानी से ही अंकुरित होता है। इसीलिए कामना को मन का बीज कहा जाता है। यह अव्यय मन सम्पूर्ण सृष्टि में एक ही है। अन्य मन तथा सभी प्राणी इसके विकार मात्र हैं। यह मन कभी मरता नहीं। यही हम सबका आत्मा है। इसी को कृष्ण-‘ममैवांशे जीवलोके, जीवभूत: सनातन:।’ कह रहे हैं। क्षर एवं अक्षर सृष्टि का अपना कोई मन है ही नहीं। जिसे हम अपना मन कह रहे हैं, वह श्वोवसीयस मन का ही प्रतिबिम्बित मन है। इन्द्रिय मन है। तब योग की अवधारणा इस मन से यदि आगे नहीं बढ़ी तो इसमें आश्चर्य क्या है।