यह विवरण भारतीय संस्कृति के उस विचार से मेल नहीं खाता है जिसमें प्रत्येक जीव के लिए अपनत्व और सद्व्यवहार की बात कही गई है। किन्तु दुर्भाग्यवश यह बेमेल विचार आज भी मौजूद है। सकारात्मक पक्ष यह कि यही विचार उस तीसरे मानवीय प्राणी को संघर्ष की प्रेरणा दे रहा है। जिसमें विचार है, संवेदना है वह सदा-सदा के लिए दलित अथवा उपेक्षित नहीं रह सकता है। एक न एक दिन वह सिर उठाता है, आगे बढ़ता है और समाज से अपना अधिकार मांगता है। एक और बहुत ही सकारात्मक तथ्य जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि इस “माइनॉरिटी जेंडर” ने अपने अधिकारों के पक्ष में आवाज़ उठाने के लिए “एग्रेसिवनेस” का सहारा नहीं लिया। उन्होंने स्वयं को साबित करने का रास्ता चुना। यह रास्ता लम्बा है लेकिन स्थायी परिणाम देने वाला सिद्ध होगा।
“तीसरा मानवीय प्राणी” शब्द समूह अटपटा लग सकता है किन्तु किन्नर, हिजड़ा क्या कम अटपटे सम्बोधन नहीं हैं? अब लिंगानुसार ‘थर्ड जेंडरÓ कहा जाना सर्वथा उचित लगता है। सारी दुनिया में थर्ड जेंडर अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करते दिखाई दे रहे हैं। इस दिशा में ब्रिटेन में भी एक ऐतिहासिक घटना घटी। ब्रिटेन के आवासीय स्कूलों के बच्चों ने अपनी पहचान सुनिश्चित करने के लिए मांग की कि उन्हें पुरुष पहचान पर आधारित सम्बोधन ‘ही अथवा स्त्री पहचान पर आधारित “शी” कह कर न पुकारा जाए अपितु “जी” कह कर पुकारा जाए। ब्रिटेन में “जी” को एक लिंग-निरपेक्ष उच्चारण माना जाता है। ब्रिटिश सरकार ने बच्चों की इस मांग को गंभीरता से लिया और ब्रिटेन के आवासीय स्कूलों के शिक्षकों को आदेश दिया कि वे ट्रांसजेंडर बच्चों को “ही” या “शी” की बजाय “जी” कहकर बुलाएं ताकि वे असहज महसूस न करें। ब्रिटेन आवासीय स्कूल एसोसिएशन की ओर से जारी आधिकारिक दिशानिर्देश में शिक्षकों से अपील की गई कि वे ट्रांसजेंडर छात्रों को “जी” कहें। साथ ही, शिक्षकों से कहा गया कि वे उन्होंने ऐसे छात्रों की बढ़ती संख्या के लिए एक ‘नई भाषाÓ सीखने की जरूरत है जो “ही” या “शी” के तौर पर खुद पुकारा जाना पसंद नहीं करते।
यद्यपि भारत में थर्ड जेंडर की स्थिति योरोपीय देशों की तुलना में शोचनीय है। यहां नाचने, गाने, फूहड़ अभिनय करने वाले और बलात् पैसे वसूलने वाले के रूप में इनकी छवि स्थापित हो चुकी है। इस ओर समाज का ध्यान नहीं जाता है कि थर्ड जेंडर भी समाज का अभिन्न अंग है। इन्हें भी वे सारे अधिकार मिलने चाहिए जो एक स्त्री या पुरुष को मिलते हैं। अधिकारों के क्रम में सबसे पहला बिन्दु है माता-पिता का प्रेम और अपने परिवार में सामाजिक स्वीकृति। यह कितना कठिन होता होगा कि जब आप अपने माता-पिता के बारे में जानते हों फिर भी आप उनके साथ संबंध न रख सकें और उनके पास जा कर न रह सकें, वह भी मात्र इसलिए कि आप मनुष्य के रूप में प्रकृति की एक अनूठी संरचना हैं।
शबनम मौसी, कमला जान, आशा देवी, कमला किन्नर, मधु किन्नर और ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी वे नाम हैं जिन्होंने चुनाव में बहुमत से विजय प्राप्त कर के विधायक और महापौर तक के पद सम्हाले। देश की पहली किन्नर प्राचार्य मानबी बंदोपाध्याय और पहली किन्नर वकील तमिलनाडु की सत्य श्री शर्मिला ने सिद्ध कर दिया कि किन्नर अथवा ‘थर्ड ज़ेंडर” किसी भी विद्वत स्त्री-पुरुष की भांति बुद्धिजीवी वर्ग की किसी भी ऊंचाई को छू सकते हैं। किन्नर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने अपनी आत्मकथा लिखी ‘मैं हिजड़ा, मैं लक्ष्मी। उन्होंने लम्बा संघर्ष किया। महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी का कहना है कि “हम सनातन धर्म के हैं, उपदेवता हैं। हमने सालों संघर्ष झेला है। आज उसी संघर्ष का परिणाम है कि स्वयं इस धर्म मेले ने हमें अपनाया। संगम ने गोद में खिलाया। आज जितने भी किन्नर संन्यासियों ने यहां स्नान किया है, उनकी ओर से मैं पूरे मानव समाज के हित की कामना और प्रयास करती हूं। यह सनातन धर्म की ही महिमा हो सकती है कि जहां सालों तक संस्कृति और समाज से अलग रखा, वहीं सबसे बड़े संस्कृति के मेले ने बांहें फैलाकर हमारा स्वागत किया।”
इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि इसी प्रकार थर्ड जेंडर और समाज परस्पर एक-दूसरे को अपनाता रहेगा तो एक दिन समाज का नजरिया भी थर्ड जेंडर के प्रति बदल ही जाएगा और वे एक सामान्य मनुष्य की तरह जी सकेंगे।
यह लेखिका के व्यक्गित विचार हैं
डॉ. सुश्री शरद सिंह
साहित्यकार, विचारक, समाजसेविका
एम-एक सौ ग्यारह, शांतिविहार, रजाखेड़ी, सागर, मध्य प्रदेश