जलकुंभी : खत्म होने का नाम ही नहीं
निगम प्रशासन छोटी झील जलकुंभी हटाने के नाम पर प्रतिवर्ष लाखों रुपए खर्च करता है, लेकिन छोटी झील से जलकुंभी जड़ से खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। जलकुंभी की वजह से झील का अस्तित्व खतरे में आ गया है फिर भी जिम्मेदारों ने इस ओर कोई ठोस प्रयास नहीं किए हैं। जलकुंभी की वजह से ही झील का पानी हरे रंग की चपेट में आ जाता है और गर्मी के मौसम में पानी पर हरे रंग की मोटी परत चढ़ जाती है। गर्मी के मौसम में कुछ जलकुंभी हटाई भी गई तो उसे वहीं जला दिया गया।
संजय ड्राइव : संजय ड्राइव के निर्माण के बाद से छोटी झील लगभग खत्म ही हो गई है। इसका सौंदर्य पूरी तरह से समाप्त हो गया है। छोटी झील के बारे में और इसको संरक्षित करने के लिए आज तक कोई उल्लेखनीय प्रयास नहीं हुए हैं। संजय ड्राइव पर एक छोटा सा पुल ही बनाया है जिसके कारण दोनों झील का आपस में संपर्क भी खत्म हो गया है।
पिछले दो वर्ष में झील में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए प्रयास जरूर हुए, लेकिन ठोस प्लानिंग न होने के कारण सारे प्रयास धरे के धरे रह गए हैं। झील में क्रूज सेवा शुरू करने के बाद प्रचार-प्रसार की कमी रही, जिसके कारण पर्यटन को बढ़ावा देने के प्रयास की हवा तक नहीं बन पाई। क्रूज संचालन की एजेंसी ने वाटर स्पोट्र्स एक्टिविटी शुरू करने का दावा भी किया था जिसका आज तक कोई अता-पता नहीं है।
स्मार्ट सिटी योजना में झील को लेकर खास प्लानिंग की गई है। हालांकि तीन दशक से झील की दशा सुधारने के नाम पर सिर्फ वादे ही होते आ रहे हैं, जिसके कारण अब लोगों में इसको लेकर कोई खास उत्साह नहीं है। स्मार्ट सिटी मिशन के तहत गऊघाट से चकराघाट तक एलीवेटेड कॉरीडोर, झील के चारों ओर सीवर पाइपलाइन का विस्तार, नालों के पास सीवर ट्रीटमेंट प्लांट जैसे प्रयास होने की बात कही गई है।
संजय ड्राइव पर झील बोट क्लब बनाया गया। चकराघाट लाल पत्थर लगाकर सौंदर्यीकरण कराया गया। पुरानी डफरिन अस्पताल के पास पार्क में साज-सज्जा करवाई गई लेकिन झील का सौंदर्यीकरण महज दिखावा ही साबित हुआ है। उम्दा श्रेणी का निर्माण कार्य न होने के कारण सौंदर्यीकरण धीरे-धीरे ध्वस्त होने लगा है। निर्माण कार्य में गुणवत्ताहीनता के कारण लाल पत्थर जगह छोडऩे लगा है। यह सौंदर्यीकरण एक पंचवर्षीय तक भी नहीं चल सका।
राजनीति: झील पर 30 वर्ष से राजनीति हो रही है। तीन दशक में भाजपा के जनप्रतिनिधि ही विधानसभा और लोकसभा में चुनकर पहुंचे हैं, लेकिन उन्होंने धरोहर को सहेजने के लिए कोई भी बड़े प्रयास नहीं किए। आजादी के बाद से लगभग 40 सालों तक कांग्रेस के प्रतिनिधि अधिकांश समय निर्वाचित हुए लेकिन उन्होंने भी झील की सिर्फ उपेक्षा ही की।
मोंगाबधान- यह पिछले तीन सालों से अति जर्जर की श्रेणी में चिन्हित हैं। करीब दो वर्ष पूर्व बारिश के मौसम में झील में ज्यादा पानी होने के कारण मोंगाबंधान टूटने की स्थिति में आ गया था जिसके बाद जिला प्रशासन को आधी रात में कुछ बस्तियां खाली करवानी पड़ीं थीं। इसके बाद निगम प्रशासन के जिम्मेदारों ने मोंगाबधान को ठीक कराने के लिए प्रयास नहीं किए हैं। हद तो यह है कि बांध में जो दरारें दिख रहीं थीं उनको ऊपर से
सीमेंट की जुड़ाई करके ढंक दिया है। बीते दिनों निगम परिषद की बैठक में मोंगाबंधान में हाइड्रोलिक गेट लगाने को लेकर गंभीर विचार-विमर्श हुआ था। लेकिन नगर सरकार ने लंबी प्लानिंग बताकर दूसरी कहानी रच दी। हाइड्रोलिक गेट लगाने के पीछे यह वजह बताई गई थी कि बारिश के मौसम में जैसे ही गेट खेलेंगे तो झील में जमा सिल्ट अपने आप बह जाएगी। लेकिन यह मामला भी ठंडे बस्ते में चला गया।
झील में करीब डेढ़ दर्ज से ज्यादा छोटे-बड़े नाले मिलते हैं, जिसमें बिजली कंपनी बस स्टैंड, दीनदयाल चौराहा के पास, संजय ड्राइव के आगे, पुरानी डफरिन के पास, गऊघाट के पास जैसे बड़े नालों से बड़ी मात्रा में ठोस अपशिष्ट पदार्थ झील में पहुंच रहे हैं। नालों के मुहानों पर गंदगी व सिल्ट की स्थिति देखते ही बन रही है जहां पर करीब चार फीट तक मलबा जमा हो गया है। नालों के जरिए झील में ठोस अपशिष्ट पदार्थ न पहुंचें इसके लिए निगम प्रशासन ने अब तक कोई प्रयास नहीं किए हैं।
एनजीटी में याचिका दायर होने के बाद भी झील की तस्वीर नहीं बदलद्ध। एनजीटी ने जिला व निगम प्रशासन को तीन प्रकार की प्लानिंग बनाने के निर्देश दिए थे। प्लानिंग उन्होंने अपने पास भी बुलाई थी। निगम प्रशासन ने कागजों में लांग, मिड और शॉर्ट टर्म की प्लानिंग बनाकर एनजीटी को खुश कर दिया लेकिन जमीनी स्तर पर कोई प्लानिंग लागू नहीं है।
झील के चारों ओर सवा सौ से ज्यादा अतिक्रमण आज से तीन साल पहले चिन्हित किए गए थे। तत्कालीन कलेक्टर अशोक सिंह ने राजस्व विभाग, नगर निगम और पुलिस की मदद से झील के चारों ओर स्थित वार्डों का सर्वे करवाया था और उस आधार पर झील में किस हिस्से पर कितना अतिक्रमण है, उसको चिन्हित किया था। इस सर्वे के बाद जिला प्रशासन को आगे की कार्रवाई करनी थी लेकिन राजनीतिक दबाव के कारण आगे कोई
कार्रवाई नहीं हो पाई। बताया जाता है कि गऊ घाट के पास जिले के एक बड़े नेता का कब्जा है, जिनके घर का ड्रेनेज झील में ही खुलता है। ये माननीय ही नहीं, बल्कि झील के किनारे अनेक घरों का ड्रेनेज झील में ही खुलता है। सीवर प्रोजेक्ट सबसे पहले झील के चारों ओर स्थित वार्डों में पूर्ण किया जाना था, लेकिन राजनीतिक दखल ओर एजेंसी की लापरवाही के कारण इसको समतल और शहर के बाहरी भागों में कराया गया।
करीब 5 साल पहले गऊघाट से बस स्टैंड होते हुए संजय ड्राइव तक बाउंड्रीवॉल का निर्माण कार्य करवाया गया था। इसके साथ ही पुरानी डफरिन अस्पताल के सामने से गऊघाट तक एक छोटे पार्क का निर्माण भी कराया गया था, जो वर्तमान में अव्यवस्थाओं व लापरवाही का शिकार हो गया है। पार्क में जहां लोग टहलते हैं वहां होर्डिंग तान दिए गए हैं। पेवर ब्लॉक्स उखड़ गए हैं और बैंच टूट गईं हैं। इधर, बस स्टैंड से संजय ड्राइव तक बाउंड्रीवॉल जगह-जगह जर्जर हो गई है। तीन स्थानों पर तो बाउंड्रीवॉल
झील में ही गिर गई है। झील की बाउंड्रीवॉल का काम उस राशि से कराया था, जिससे झील शुद्धिकरण का काम किया जाना था। बाउंड्रीवॉल बनाने में भी अनियमितता बरती गई और बिना बेस बनाए ही लोहे की बड़ी ग्रिल खड़ी कर दी गईं। पिछले चार सालों में तिली मार्ग पर बाउंड्रीवॉल पांच बार गिर चुकी है, जिसमें से सिर्फ एक बार ही सुधार कार्य किया गया है।
चकराघाट को छोड़कर एक भी घाट आदर्श स्थिति में नहीं है। बरियाघाट, गऊघाट, गंगाघाट जैसे प्रमुख घाटों पर न तो सौंदर्यीकरण किया गया है और न ही यहां पर नियमित रूप से सफाई की जाती है। घाटों पर स्थानीय लोगों द्वारा कचरा फेंका जाता है। इस कारण घाटों की स्थिति और भी दयनीय हो गई है।
खर्चा- शहर के नेताओं ने झील के नाम पर अनाप-शनाप ढंग से पैसों की बर्बादी की। करीब आठ साल पहले ३० करोड़ रुपए मिले थे। इससे डीसिल्टिंग का काम होना था, लेकिन निगम के तत्कालीन जिम्मेदारों ने राशि का उपयोग बाउंड्रीवॉल आदि बनाने में शुरू कर दिया। शिकायत केंंद्र से की गई तो उन्होंने नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग को राशि के उपयोग पर रोक लगाने और राशि वापस लेने के निर्देश दिए। मानसून के ठीक पहले बीते वर्ष डीसिल्टिंग के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च करने की प्लानिंग थी। पत्रिका के खुलासे के बाद यह पैसा बर्बाद होने से रुक गया।