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सतना

वैवाहिक रस्मों को भूल रही आज की जनरेशन, इन 10 चीजों के मायने बदले

आधुनिक शोर-शराबे के बीच गुम होती जा रहीं वैवाहिक परंपराएं, वैवाहिक कार्यक्रम के दौरान निभाई जाने वाली अधिकांश रश्मों को भूलती जा रही युवा पीढ़ी

सतनाAug 11, 2018 / 02:23 pm

Rajesh Sharma

hindu shadi rasam in hindi

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सतना। पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण और भागमभाग भरी जिंदगी में वैवाहिक कार्यक्रमों का स्वरुप बदल गया है। वर और वधू पक्ष के परिवारों को माटी से जोडऩे वाली अधिकांश परंपराएं समाप्त हो चुकी हैं या फि र विलुप्त होने की कगार पर हैं। वैवाहिक कार्यक्रमों के घर-आंगने से बाहर बरातघर और मैरिज गार्डन में करने की परंपरा के चल निकलने के कारण अब घर के आंगन कुंवारे रह जाते हैंए जबकि पूर्व में इसका ध्यान रखा जाता था कि आंगन कुंवारा नहीं रह जाए। इसके लिए लोग दूसरों के बेटियों का विवाह तक अपने घरों के आंगन से करने के लिए तैयार हो जाते हैं।
फ टाफ ट में बदली कई दिनों की शादी
आधुनिक वैवाहिक कार्यक्रमों का पूरा स्वरूप ही बदलता जा रहा है। अब पंडालों और बरातघरों में द्वारचार से शुरू होने वाला वैवाहिक कार्यक्रम द्वारचार होने के साथ ही सिमटने लगता है। आज से दो दशक पहले तक वैवाहिक कार्यक्रम कई दिनों के हुआ करते थे। इनमें बाकायदा दोनों पक्ष के लोग बैठकर एक-दूसरे का परिचय प्राप्त करते थे।

डीजे के शोर में गुम हो गई शहनाई की मधुर तान
एक जमाने में विवाह कार्यक्रमों की शान हुआ करती थीं शहनाईयां। बगैर शहनाईयों के विवाह कार्यक्रम अधूरे ही माने जाते थे। शहनाई की वह मधुर तान समय के साथ बैंड और अब इसके बाद डीजे के शोर में दब गई है। वैवाहिक कार्यक्रमों में अब शहनाई की मधुर धुन सुनाई ही नहीं देती है।
बैंड पार्टियों की भी कम हुई पूछ परख
डीजे के आगे बैंड की भी पूछ परख कम होती जा रही है। जिन वैवाहिक कार्यक्रमों में बैंड और डीजे दोनों बुलाए जाते हैं उनमें देखा जा रहा है कि लोग डीजे के आगे नाचते रहते हैं। डीजे के कानफ ोडू शोर के आगे दबती जा रही है। यही कारण है कि अब कई वैवाहिक कार्यक्रमों में लोग बैंड के बजाए सिर्फ डीजे ही बुक कराने लगे हैं।
घोड़ी और बग्घी की जगह ली कार
वैवाहिक कार्यक्रमों में दूल्हा घोड़ी य बग्घी में बैठकर पहले दुल्हन के दरवाजे तक पहुंचता है। अब इनकी उपलब्धता की और मांग दोनों में कमी के कारण अब इनका स्थान कारों ने ले लिया है। दुल्हन की विवाई कार्यक्रम पहले डोली में हुआ करता था अब इस परंपरा पर पूरी तरह से कारे हावी हो चुकी हैं।
रिस्तेदारों तक को नहीं पहचानते
विवाह के नए स्वरूप में वर और वधू पक्ष के रिस्तेदार एक-दूसरे को पहचान भी नहीं पाते हैं। वधू पक्ष का कौन पैर पड़कर चला जाता है वर पक्ष के लोगों को इसका पता ही नहीं होता है। हालात यह होते हैं कि दूल्हे तक को पता नहीं होता है कि कौन-कौन लोग उसके पैर पड़कर चले गए। लोगों को मामा और फू फ ा जैसे नजदीकी रिस्तों के बारे में भी ज्यादा पता नहीं होता है।
दूल्हा और दुल्हन तक सिमटी शादी
आजकल का पूरा वैवाहिक कार्यक्रम दूल्हां और दुल्हन के आपपास सिमटता जा रहा है। रिस्तेदारों की भूमिका धीरे-धीरे घटती जा रही है। पहले की तरह अब ना वर पक्ष के लोगों से वधू-पक्ष का परिचय कराया जाता है और ना ही वर पक्ष के लोगों को इतना जानने के लिए समस होता है। जबकि पूर्व में लोग एक-दूसरे के परिवारों को बारे में जानने के लिए ललायित रहते थे।
कुएं बचे नहीं, पूजे जा रहे अब हैंडपंप
विवाह कार्यक्रम, बच्चों के जन्म और अन्य धार्मिक कार्यक्रमों में कुआं पूजन का विशेष महत्व है। अब शहरों क्षेत्रों में कुएं बचे तो नहीं हैं, इससे अब यह कार्यक्रम हैंड पंप और बाल्टी पूजकर रश्म अदायगी कर रहे हैं। स्वामी परमानंद ने बताया पहले कुंए को परिवार का सदस्य माना जाता था। कुंए से परिवारिक रिस्ता होता था जो अब समाप्त हो गया है।
मागर माटी के लिए जगह नहीं
वैवाहिक कार्यक्रमों में मागर माटी का विशेष महत्व होता था। मागर माटी में गांव की महिलाएं गाजे-बाजे के साथ मिट्टी को खोदकर लाती थी, उसी मिट्टी से मड़वे के पास चूल्हा बनता था। इसी चूल्हे में विवाह के एक दिन पहले रौ छौकने की रश्म निभाई जाती थी। इन्हीं चूल्हों में लावा परोसने की रश्म निभाने के लिए लावा भूंजने की रश्म भी निभाई जाती थी। अब रिस्तों को आपस में जोडऩे वाली ये रश्म अब महज औपचारिकता तक सिमटकर रह गई हैं
गारी नहीं मिली तो गुस्साएं
वैवाहिक कार्यक्रमों मे गारी गायन का भी महत्व है। इसमें वधू-पक्ष की महिलाएं वर पक्ष के परिवार और रिस्तेदारों के लिए गारी गाती थी। वह वैवाहिक कार्यक्रमों के महत्वपूर्ण नेगों में से एक माना जाता था। पूर्व में वैवाहिक कार्यक्रमों के दौरान कई बार ऐसा भी देखने में आया कि किसी रिस्तेदार विशेष को गारी नहीं देने पर वे गुस्सा लेते थे। यहां तक कि वे इसकी शिकायत भी करते थे कि उन्हें गारी क्यों नहीं दी गईं। पूर्व में समधी को नाम लेकर अलग-अलग तरह की गारी दी जाती थी जिससे संबंधों का पूरे परिवार को पता चलता था। अब तो यह सब बंद हो जाने से परिवार के लोग संबंधों को जान नहीं पाते है। संबंध तो नाउन,नाई, बारी तक के होते थे । विवाह में जितना महत्व पंडित का होता था उतना ही नाऊ का होता था। अब तो नाऊ से बात तक नहीं की जाती है।
रिस्तेदारों तक को नहीं पहचानते
वैवाहिक कार्यक्रम के दौरान दोनों परिवार के रिस्तेदार एक- दूसरे से मिलते थे। इस कार्यक्रम मे परिवार की पूरी जानकारी ली जाती थी। जनमाशा में रिस्तेदार रुककर रिस्तेदारी बताते थे, जनमाशा में कवित्र होता था वह अब बंद हो गया है। वधू पक्ष की महिलाएं वर पक्ष के लोगों से रंग-गुलाल भी खेतली थी। अब तो महंगे कपड़े गंदे नहीं हों इसलिए यह प्रथा बंद हो गई है।
धोबिन देती थी सुहागन
वैवाहिक कार्यक्रमों में धोबिन की भी भूमिका रहती थी। जब तक धोबिन सुहागन नहीं देती थी तब तक विवाह पूर्ण नहीं माना जाता था। मौर्य सिराने के लिए परिवार एवं गांव की महिलाए एक साथ गाजे.बाजे के साथ नदी जाती थी। वैवाहिक कई दिनों तक चलते थे जो अब एक दिन में हो जाते हैं।
तब बिदा होती थी गांव की बेटी
वैवाहिक कार्यक्रम के दौरान वधू पक्ष के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्षण विदाई का होता है। पहले गांव के बिटिया की बिवाई में पूरा गांव उमड़ पड़ता था। गांव की बिटिया को ससुराल में किसी प्रकार की परेशानी नहीं हो इसलिए गांव के लोग नकद राशि के साथ ही गृहस्थी में उपयोग होने वाली सामग्री भी उपहार में भेंट करते थे। अब तो विदाई कार्यक्रम में महज रश्म अदायगी होती है। अब तो हालात यह होते हैं कि विवाह कार्यक्रम के समापन के पूर्व ही कई रिस्तेदार जा चुके होते हैं। विदाई के दौरान वधू के परिवार के ही चंद लोग मौजूद होते हैं।
व्यौहार मतलब आर्थिक सहयोग
वैवाहिक कार्यक्रम के दौरान वधू पक्ष को आर्थिक परेशानी नहीं उठानी पड़े इसके लिए क्षेत्र के लोग वधू पक्ष को व्यौहार के रूप में नकदी और सामग्री भेंट करते थे। आज परिवार को लोग तक सहयोग नहीं करते हैं। यह परंपरा अब धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है।
विलुप्त होती जा रहीं पंगतें
वैवाहिक कार्यक्रमों के दौरान पूर्व में बारातियों को पैर धुलाकर पंगत में बैठाकर भेाजन कराया जाता था। आजकल बफ र भोजन के आगे यह रश्म भी अंतिम संासें गिनती नजर आ रही है। आज किसी भी वैवाहिक कार्यक्रम में कौन-कौन आया यह तक पता नहीं रहता है। अब दिखावा अधिक है।
पहले उपहार अब दहेज
पहले वैवाहिक कार्यक्रम के दौरान बेटियों को परिवार के लोग उपहार के रूप में दैनिक उपयोग में आने वाली सामग्री व संस्कार दिया करते थे। अब समय के साथ इसका स्वरूप बदल गया है। अब उपहार की जगह वर पक्ष की ओर से दहेज की लिस्ट वधू पक्ष को दी जाती है। हर सामान अब आन लाईन बुक हो जाता है। पहले परिवार के लोग दहेज के सामान की तैयारी महिनों पहले करने लगते थे।
दूल्हे के जूते
विवाह कार्यक्रम के दौरान दूल्हे के जूते छिपाने की रश्म को दुल्हन की बहनों द्वारा निभाया जाता था। यह परंपरा कहने को तो आज भी कायम है लेकिन इसका स्वरूप पूरी तरह से बदल गई है। पहले जहां इस रश्म में संबंधों का अहसास होता था वहीं अब यह दिए गए दहेज के बदले कितने रुपए वापस लिए जा सकते हैं इस पर आधारित होती है।
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-हमारा परिवार वैदिक रीति रिवाजों का पालन कर रहा है जिस कारण हमारे परिवार में सभी सुखी हैं। मैने देखा है कि लोग अपनी संस्कृति भूलते जा रहे हैं जिस कारण विवाह के बाद भी खुशी नहीं रह पाते हैं। घर में वैवाहिक कार्यक्रम का प्रारंभ मागर माटी से प्रारंभ होता था। पूरा परिवार एक जुट होता था। घर का आंगन सजता था जो अब नहीं सजता है। वह सूना रह जाता है। मेरा मानना है कि लोगों मे समय का अभाव एवं परिवारिक निकटता कम होती जा रही है। शादी अब फ ारमल्टी हो गई है। अब रुपए फेंक कर एक दिन में विवाह कर लेते हैं। लोगों को मुहूर्त का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
– वंदना खुराना , समाजसेविका
-यह बात सच है कि अब विवाह की रश्मों एवं समय सीमा की कमी आ गई हैए परन्तु इसमे प्रत्येक की विवशता है कि वह उतना समय नहीं दे पाता है। अत्यधिक व्यवस्तता एवं समय की कमी ने विवाह उत्सव का स्वरुप छोटा करना पड़ रहा है। घर में होने वाले कार्यक्रमों में पूरा परिवार एक जुट होता था वह अब नहीं रहा है। घर के आंगन मे सारे कायक्रम होते थे वह अब नहीं रहे है। इसी कारण परिवार में जो प्रेम होना चाहिए वह नहीं रहा है।
-पुरषोत्तम शर्मा , समाजसेवी
-वैवाहिक कार्यक्रम अब होते कहां है। पहले वैवाहिक कार्यक्रमों में पूरा परिवार एक जुट होकर काम करता था, वह अब नहीं होता है। मड़वा के नीचे सालेय व उमर के पेड़ की डगाल लगाई जाती थी। जिससे वर.वधू इसके परिक्रमा लगाने के बाद जनम-जनम के साथी बन जाते थे। इसका भी वैज्ञानिक आधार होता था। आज लोग इस को नहीं मानते है जिस कारण कईयों के वैवाहिक जीवन सुखी नहीं रहते हैं। घर के आंगन मे नौ खम्बे होते थे जिनके बीच में मड़वा होता था जिसके फेरे लगाए जाते थे वे सभी दस इंन्द्रीयों के होते थे। सालेय पेड़ प्रेम की प्रतीक है।
– पं. पदमाकर मालवीय,आयुर्वेद चिकित्सक
-समय ने सभी के जीने का तरीका बदल दिया है। वैवाहिक कार्यक्रम का स्वरुप भी बदल गया है। धन ने वैवाहिक के मूल स्वरुप को बदल कर रख दिया है। अब दिखावा अधिक है। पहले घर से बारात निकलती है। बेटी की विदा घर से होती थी अब यह रश्म खत्म सी हो गई है जिस कराण रिस्ते मजबूत नहीं रहते हैं। आधुनिकता के कारण वैवाहिक कार्यक्रम दिखावा बन कर रह गये हैं।
– हरिओम गुप्ता , जिला अध्यक्ष. अखिल भारतीय वैशय महा सम्मेलन

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