इन किसानों की कृषि भूमि वर्ष 2016 में बांध के पानी में डूब गई लेकिन चार वर्ष बीतने के बाद तक उनको मुआवजे में एक पैसा नहीं मिल पाया। इनको मुआवजा जमीन की शासन के नाम रजिस्ट्री कराने के बाद मिलना है लेकिन आदिवासी होने के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है। इसलिए अब इस मामले में विशेष छूट का फैसला कलेक्टर कार्यालय स्तर पर अटका है। इसके साथ ही आदिवासियों का मुआवजा पत्रावली मेंं कैद होकर निर्णय का इंतजार कर रहा है।
गांव साजापानी मेंं शासन की मंशा के तहत वर्ष 2014 में सिंचाई के लिए वहां स्थानीय नदी पर बांध का निर्माण कराया गया। वर्ष 2016 से इसमें सिंचाई के लिए जल संग्रह शुरू हुआ तो चिह्नित हुई भूमि के साथ ही निकट की साढे आठ हजार हेक्टेयर अन्य भूमि को भी पानी ने अपने घेरे में ले लिया। इसके साथ ही वहां के 35 आदिवासी किसान परिवारों पर संकट टूट पड़ा। इनकी भूमि का अधिग्रहण नहीं हुआ। इसलिए उनको कोई मुआवजा भी नहीं मिला। बताया गया कि इसके बाद प्रभावित अधिकतर आदिवासी परिवार दूसरे लोगों के यहां मजदूरी कर गुजारा करने की हालत में आ गए।
नियमों का हवाला
प्रदेश शासन के साथ चले लंबे पत्राचार के बाद तीन माह पहले जनवरी में सभी प्रभावित परिवारों को मुआवजे के लिए १११.५२ लाख रुपए मंजूर हो गए लेकिन इसके बाद पंजीयन कार्यालय ने आदिवासी होने के कारण नियमों का हवाला देते हुए इनकी भूमि का शासन को बेचान मंजूर करने से इनकार कर दिया। इस प्रकार आदिवासी होना ही इन परिवारों के लिए परेशानी बन गया। समस्या के समाधान के तौर पर इन परिवारों के लिए भूमि बेचान की विशेष छूट की मंजूरी के लिए फरवरी के अंत में पत्रावली कलेक्टर कार्यालय पहुंच गई लेकिन तब से मामला मंजूरी के स्तर पर अटका हुआ है।बताया गया कि कलेक्टर कार्यालय की भूमि शाखा के स्तर पर इन परिवारों की भूमि की शासन के नाम रजिस्ट्री करने के लिए विशेष मंजूरी की अनुशंसा कर दी गई है। अब लोकसभा चुनाव की आचार संहिता हटने के बाद ही कोई फैसला होगा मगर तब तक और इंतजार आदिवासी परिवारों की मजबूरी बन गया। फिलहाल इस बांध से आसपास के लगभग साढ़े सात सौ हेक्टेयर क्षेत्रफल में किसानों को सिंचाई का लाभ मिल रहा है।