दफ्तरों में कम्प्यूटर के आगे घंटों वक्त बिताने वाले नौकरीपेशा माता-पिताओं की जिंदगी हर रोज चुनौतियों से भरी होती है। माता-पिता होना अपने आप में एक फुलटाइम जिम्मेदारी है, उस पर से फुलटाइम नौकरी। इन दोनों जिम्मेदारियों को निभाने में पैरेंट्स को तमाम तरह की मुश्किलों, तनावों के साथ ग्लानिभाव से भी गुजरना पड़ता है। पर यह मामला एकतरफा नहीं, माता-पिता के लिए यह जितना मुश्किलों भरा है, उससे जरा भी कम बच्चों के लिए नहीं। पूरा दिन दफ्तर और यात्राओं में बिता देने वाले माता-पिता से बच्चों का घटता संवाद, उनके मानसिक और भावनात्मक विकास में बाधक बन जाता है।
दीपिका शर्मा
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हाल ही में गुडग़ांव के डे-केयर सेंटर में एक तीन साल की बच्ची का किसी ने अंगूठा काट दिया था। इस घटना को मां ने फोटो समेत फेसबुक पर डाला तो सोशल मीडिया पर लोगों का गुस्सा फूट पड़ा। वहीं लगभग छह महीने पहले गाजियाबाद के एक क्रेश में पुलिस का छापा पड़ा तो सामने आया कि वहां छोटे बच्चों के साथ शारीरिक शोषण की घटनाएं हो रही थीं।
सौम्या (बदला हुआ नाम) की बेटी भी इसी क्रेश में जाती थी। इस बारे में जानकारी मिलते ही वह बीच में ही ऑफिस छोड़कर क्रेश पहुंची। अपनी नन्हीं-सी बिटिया को वहां से ले आई। इस घटना के बाद सौम्या ने गाजियाबाद ही छोड़ दिया और दिल्ली के लक्ष्मी नगर इलाके में जाकर बस गई।
उठ रहा है विश्वास
आए दिन सुनने में आ रही ऐसी घटनाओं के कारण कई पेरेंट्स का विश्वास क्रेश या डे-केयर सेंटर से उठता जा रहा है।
दूसरी तरफ अपना अनुभव सुनाते हुए टूर एंड ट्रैवल्स के बिजनेस में लगे राजवीर रो पड़ते हैं। वह बताते हैं कि उनकी 2 साल की एक बेटी है। उन्हें काम के सिलसिले में साल में 6-7 महीने बाहर रहना पड़ता है। वे कहते हैं, मेरी बेटी कब पहली बार चली, कब सबसे पहले पापा या मम्मी कहा, ऐसे कई पल हैं, जो मैं देख नहीं पाया और इस बात की मुझे काफी तकलीफ है।
मेरी बेटी अपने दादा-दादी के साथ इलाहाबाद में रहती है। यह फैसला हम दोनों का था, क्योंकि हमारे लिए नौकरी करते हुए उसे अपने साथ रखना मुश्किल था। इसके अलावा बड़े शहरों में सुरक्षा का मसला भी काफी अहम है। हां, हमें यह बात जरूर सालती है कि हम उसका बचपन जी नहीं पा रहे। 16 सितंबर को ‘वर्किंग पैरेंट्स डे’ मनाया जाता है। इस मौके पर यह नौकरीशुदा माता-पिता और उनके बच्चों की चुनौतियों पर यह आलेख।
सुरक्षा बन गया है बड़ा सवाल
जयपुर के नौकरीपेशा दंपती श्वेता-रवि के दो बच्चे हैं। आए दिन प्रकाश में आने वाली ऐसी घटनाओं से वे डरे हुए हैं। श्वेता बताती हैं, मैं और मेरे पति अपने बच्चों को समय नहीं दे पाते। मुझे ग्लानि होती है कि अपने बच्चों को समय नहीं दे पाती। वे जब जगते हैं, तब तक ऑफिस के लिए मैं निकल चुकी होती हूं। उन्हेंं तैयार करना, खाना देना, पेरेंट्स-टीचर मीटिंग में जाना, ऐसा कोई काम नहीं कर पाती। ये बात हमेशा मुझे कचोटती है।
बच्चों का नजरिया भी जरूरी
बच्चों का नजरिया भी समझने की जरूरत है, क्योंकि वह इस सब के चलते कई बार अपने आपको काफी अकेला महसूस करते हैं। वे काफी जिद्दी हो जाते हैं, साथ ही हर छोटी-बड़ी बात पर अपने आसपास के माहौल से तुलना करने लगते हैं जैसे उनके दोस्त की मम्मी उसे लेने आती है और मेरी नहीं या किसी के पापा उसे छोडऩे आते हैं और मेरे नहीं आदि।
डॉ. अविनाश डिसूजा, बाल मनोरोग चिकित्सक
बदल रही है बच्चों की मानसिकता
बाल मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. अविनाश डिसूजा बताते हैं, नौकरीपेशा माता-पिता के बच्चों पर कई तरह का प्रभाव पड़ता है। ऐसे माता-पिता बच्चों को काफी कम समय देते हैं। इसके चलते बच्चों में काफी अकेलापन आ जाता है। ऐसे बच्चे ज्यादातर उन लोगों के करीब हो जाते हैं, जिनके साथ वह रहते हैं, जैसे उन्हें रखने वाली आया या ग्रांट पैरेंट्स आदि।
अकेले ज्यादा रहने वाले बच्चों पर दो तरह से असर हो सकता है। कई बार वह जिम्मेदार हो जाते हैं या फिर वे गलत हरकतें करने लगते हैं। ऐसे माता-पिता अपने बच्चों को कम समय देने और अपनी आत्मग्लानि को कम करने के लिए बच्चों की उन हरकतों को भी नजरअंदाज करते हैं, जो उन्हें नहीं करना चाहिए।
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