न्यूट्रिनो ऑब्जर्वेटरी स्थापित होने की संभावना
वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. टी.वी वेंकटेश्वरन के मुताबिक नए साल में यूरोपीय परमाणु अनुसंधान संगठन (सर्न) के बतौर सहयोगी के रूप में भारत में कई नए अध्ययन सामने आ सकते हैं। इससे ब्रह्मांड में बदलाव से संबंधित बिग-बैंग के दौरान क्या स्थितियां और परिस्थितियां थीं, इसके बारे में जाना जा सकेगा। इसके अलावा क्वाक्र्स के बारे में भी अध्ययन हो रहा है। नए साल में भारत में न्यूट्रिनो ऑब्जर्वेटरी स्थापित होने की संभावना है। इसे तमिलनाडु में स्थापित किया जाना है। दरअसल, न्यूट्रिनो इलेक्ट्रान, प्रोटान और न्यूट्रान से भी बेहद सूक्ष्म कण है। हैरानी की बात है कि आंखों के सामने से एक बार में एक वर्ग सेंटीमीटर में 600 मिलियन न्यूट्रिनो पार हो जाते हैं।
चंद्रयान-2 पर होगी नजर
इसके अलावा चंद्रयान-2 पर भी दुनियाभर की निगाहें रहेंगी। इस बार चंद्रमा पर रिमोट कार, जिसे हम रोवर कहते हैं उसे भेजा जाएगा, जो चांद पर चहलकदमी कर वहां की मिट्टी और तापमान समेत हालातों का अध्ययन करेगा।
भारत के टावर से से दुनिया को सिग्नल
इसके अलावा भारत गुरुत्वीय तरंगों पर भी काम कर रहा है। हालांकि, अमरीका, ब्रिटेन समेत पूरी दुनिया में इस पर काम हो रहा है। भारत में इसे इंडिगो नाम दिया गया है। यह अमरीका में लिगो ऑब्जर्वेटरी के साथ मिलकर भी काम कर रहा है। इसका मूल उद्देश्य है गुरुत्वीय तरंगों का नेटवर्क बनाना है। दरअसल, हमारी बहुत सी ऊर्जा घर्षण और हीट के चलते यूं ही बेकार चली जाती है। ऐसे में इस प्रयोग से ऊर्जा के नुकसान को कम से कम किया जा सकेगा। इसके अला वा भारत में डेंगू की अचूक दवा बनने के अंतिम दौर में है। यह जड़ी-बूटियों से तैयार हो रही है। अभी इसका मानव पर परीक्षण होना है।
नैनो तकनीक से बन रही बैटरी
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अंगों के विकास पर उल्लेखनीय काम हो रहा है। जैसे छिपकली की पूंछ रिजेनेरेट होती है, उसी तरह से अंगों के विकास करने पर शोध हो रहा है। इसके लिए पदार्थ विज्ञान में बेहतरीन काम हो रहा है। बैटरी का विकास किया जा रहा है। नैनो तकनीक का इस्तेमाल करके ग्रैफीन से बैटरी बनाई जा रही है। ताकि लंबी अवधि तक बैटरी चले। पेसमेकर समेत छोटे-छोटे उपकरणों में इसका इस्तेमाल होगा। बायोस्फीयर के क्षेत्र में भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहतरीन कार्य हो रहा है। कार्बन चक्र के असंतुलन से पर्यावरण प्रणाली को काफी नुकसान पहुंच रहा है। इसके लिए आर्टिफिशियल बायोस्फीयर बनाया जा रहा है। रूस में बायोस्फीयर-1 प्रोजेक्ट तो विफल हो गया था, मगर अब बायोस्फीयर-2 पर अमरीका के एरिजोना में काम चल रहा है। इससे मंगल पर छह माह तक रहने के लिए खाना-पानी लेकर जा सकते हैं।