कहीं हमारा मर्यादाहीन जीवन तो उत्तरदायी नहीं?
गेस्ट राइटर- डॉ. महेन्द्र कर्णावट, अणुव्रत प्रवक्ता
कहीं हमारा मर्यादाहीन जीवन तो उत्तरदायी नहीं?
नोबेल कोरोना वायरस से समूचा विश्व कांप उठा है। लगभग 3 माह पूर्व वुहान (चीन) सेंट्रल हॉस्पिटल के नेत्र विशेषज्ञ डॉ. ली.वेंगलियांग ने इस वायरस के बारे में पहली चेतावनी दी थी, लेकिन उसे नजरअंदाज कर दिया गया, जिसका परिणाम है कि आज पूरा विश्व इसकी चपेट में है। इससे बड़ी संख्या में लोग अकाल मृत्यु के शिकार हुए हैं तो लाखों लोग इससे संक्रमित है।
प्रश्न सभी के मन में है कि यकायक यह बीमारी आई कहां से? जिसने विज्ञान को परास्त कर दिया। ऐसा क्यों हो रहा है? क्यों प्रकृति हमसे बार-बार रूठ जाती है? कहीं हमारा मर्यादाहीन दैनिक जीवन उत्तरदायी तो नहीं? हमने अपने ऐशो-आराम व स्वार्थ के लिए जिस गति से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया है, उसी का परिणाम है कि आए दिन प्राकृतिक आपदाओं का कहर। नहाने, कपड़े-बर्तन साफ करने, शौच-निवृत्ति में पानी का असीमित प्रयोग, कटते पेड़, समाप्त होती वन संपदा, लुप्त होती वन्य प्रजातियां और कम होती पहाड़ों की ऊंचाइयों ने प्राकृतिक आपदाओं को निमंत्रण दिया है। हम अपने सुख के लिए प्रकृति के सभी अनमोल खजानों को दीमक की तरह नष्ट कर रहे हैं। किसी ने ठीक ही कहा है कि आने वाली पीढिय़ां यही कहेगी कि हमारे पूर्वज इतने स्वार्थी थे कि अपने सुख के लिए प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर दोहन किया। हमारे लिए कुछ नहीं छोड़ा। हमने अपनी मर्यादाओं को तोड़ा, इसीलिए प्रकृति रूठी।
संयम-अनुशासन, वर्तमान में हम अपने चारों तरफ की डालते हैं तो कहीं नजर नहीं आता। परिवार, समाज, धर्म और राजनीति सभी तरफ वैभव और आडम्बर का बोलबाला है। औद्योगिक क्रांति और पाश्चात्य शैली के फलते फूलते भारतीय जन जीवन में यह परिवर्तन आया है। यही स्थिति राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक आयोजनों की है। एक से बढ़कर एक बड़े आयोजन हो रहे हैं और वैभव का प्रदर्शन हो रहा है। एक तरफ जीवन की प्रचुर सुविधाएं और दूसरी तरफ जीवन यापन के लिए आधारभूत सुविधाओं का अभाव। एक तरफ विशाल स्नेह भोजों के आयोजन, तो दूसरी तरफ गेहूं के एक-एक दाने को मोहताज करोड़ों लोग। आय का असमान वितरण एवं प्रकृति का दोहन हमें ले जा रहे हैं प्राकृतिक आपदाओं की तरफ।
राष्ट्रीय आपदा के वर्तमान दौर में आवश्यक है हम प्रधानमंत्री के आह्वान को आत्मसात करें और अगले कुछ सप्ताह तक घरों के बाहर न निकलकर अनुशासित नागरिक बने। दार्शनिक आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में ‘अध्यात्म की भाषा में अनुशासन का अर्थ है संयम और यही विकास का दूसरा नाम है।Ó हम सभी स्वीकारें संयम और समवेत स्वरों में कहें, संयम ही जीवन है।
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