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कविता-एक नारी की दास्तां

Hindi Poem

जयपुरNov 27, 2021 / 04:09 pm

Chand Sheikh

कविता-एक नारी की दास्तां

कविता-एक नारी की दास्तां

आरती सुधाकर सिरसाट

बहुत अलग हूं मैं इस दुनिया से
हर किसी पर भरोसा करने से डर लगता है…
इस जमाने के इंसान को
पहचानने में बहुत वक्त लगता है…

कोई रंग नहीं जो
आसानी से घूल जाऊं…
मैं कोई धूल नहीं जो
जमीं में मिल जाऊं…
अभिमान बहुत है मगर
स्वभिमान से जीना है…
सीता तो नहीं मगर
अग्नि परीक्षा रोजाना है…

हजारों दर्दों को तकिए तले
छोड़कर फिर से नए दर्दों से उभरना है…
एक नहीं दो परिवारों को
संग लेकर चलना है…

एक फूल हूं उस बगिया का,
तोड़कर कहते हो,
कोई पीड़ा नहीं होगी
तुम्हारी लाडली को…
हर रोज का तुम्हारा
एक ही बहाना है…
दहेज तो नहीं लाई,
और कहती है पढऩे जाना है…

कभी-कभी दम घुटता है
इन ऊंची- ऊंची दीवारों में…
खुली हवा भी कैसे खाऊं,
हैवान बैठे हैं सडक़ों के किनारों में…
अस्तित्व का पता नहीं
सब गंवा बैठी है जिम्मेदारियों में…
खुद की उम्र का पता नहीं
उलझाी बैठी है जवाबदारियों में…

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