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कविता-जीवन प्रयाण!

Hindi poem

Jan 15, 2022 / 03:57 pm

Chand Sheikh

कविता-जीवन प्रयाण!

कविता-जीवन प्रयाण!

हेमराज सिंह ‘हेम’

जीवन-संध्या की एक संध्या, सिर कर थामे सोच रहा था,
दूर-दूर एकांत-विजन था, निर्जनता का जोर रहा था।

हां, कुछ चींटी, मच्छर, मक्खी,कभी-कभी टकरा जाते थे,
देते नहीं सहारा वे सब, बस उपहास उड़ा जाते थे।
सोच रहा वह, क्या थे वे दिन, सारी जगती थी कदमों में,
सुख का सागर उमड़ रहा था, घिरा हुआ था मैं अपनों में।

याद आ रहे स्वर्ण-सुखद दिन, याद आ रही मदमय रातें,
याद आ रहे शिशुपन के क्षण, याद आ रही थी बरसातें।
क्या जीवन था,क्या तन-धन था,क्या पौरुष में मतवाला था,
चंचल था हिरणी छौने-सा,गज-बालक-सा मदवाला था।

सुरम्य-रूप टपकता यौवन, कामदेव -से अंग-अंग थे,
सूर्य तेज-सा, तेज भाल पर,सुदृढ़-कंध सौम्य प्रत्यंग थे।

दिनकर-सी आभा थी तन पर,और चांद सी शीतलता थी,
था पाषाणी वक्ष जरा भी, तन पर जरा न मलिनता थी।
अधर कुसुम से खिले हुए थे,नेत्र तेज दिनकर ज्वाला-सा,
सदा प्रेम उन्मुक्त भाव था, यौवन था महकी माला-सा।

उस यौवन के अंधे-युग में, सारे दांव-पेंच अजमाए,
जीवन को सुखमय करने को, चारों घोड़े थे दौड़ाए।
अपने भूज बल का अवलम्बी, जो ठाना पूरा कर डाला,
धन माया दौलत पाने में, सारा जीवन ही दे डाला।


जो निर्णय, अंतिम निर्णय था, क्या होगा यह किसने देखा,
भला किसी की हिम्मत दे पग, जहां खींच दी मैंने रेखा।
मदविक्षप्त-मतवाला फिरता, छलता, हरता, मरजी करता,
सिंहासन आरूढ़ इंद्र-सा,भला कहां मैं, किसी से डरता।

नवयौवन उन्माद भरा, मैं त्याग लाज चलता जाता था,
भूल गया आदर्श जगत में, खोता मर्यादा आता था।

बैठ स्वर्ण के सिंहासन पर, बन्धु-बांधव का संग पाता,
जोड़-जोड़ कर परिजन का बल, देख-देख मद-भर इतराता।
धर्म-कर्म का बोध नहीं था, दान पुण्य किसने था देखा,
कहां याद था, निज कर्मों का, धर्मराज लेता है लेखा।

सहसा यह क्या,कहां गए सब? कहां गया वह स्वर्णिम-यौवन
मानो मतवाले-गज रौंधा, हरा-भरा जीवन का उपवन।
छोड़ गए मधुकर उपवन को, दिवस एक पुंकेसर सूखा,
साथ चले साथी सब छूटे, अपनों ने ही मुझाको लूटा।

सूख गई यौवन की सरिता,बलगम की नाली बह निकली,
कफ, खांसी के साथ दमा ने, सिकुड़ी,सुकुची छाती जकड़ी।
एक दिवस फिर हाथ पकड़कर, बिठा दिया घर की चौखट पर,
स्वर्ण सुराही में पीता था, थमा दिया फूटा घट लाकर।
रेशम के पट छीन लिए सब,और बिछा दी खटिया,खद्दर,
यौवन के साथी लौटे सब, साथ रहे अब मक्खी, मच्छर।
धीरे-धीरे जीवन-संध्या, ढलता अस्ताचल पर दिनकर,
प्राण हुए निस्संग त्याग देह, डूब मरा पंकज में मधुकर।

ये मानव जीवन का सच है,मत जीना मदहोशी होकर,
ये मेरा संदेश अटल है, जाना है जग से सब खोकर।

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