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सोशल मीडिया साहित्य के प्रसार में अच्छी भूमिका निभा रहा है

आखिर कैसा है साहित्य और सोशल मीडिया का रिश्ता और इस बारे में क्या सोचते हैं आज के युवा साहित्यकार, पत्रिका ने जानने की कोशिश की…

नई दिल्लीOct 06, 2017 / 12:43 am

Navyavesh Navrahi

Social media is playing a good role in the dissemination of literature

Social media is playing a good role in the dissemination of literature

एन नवराही

साहित्य की दुनिया में पाठकों कमी की बात अकसर उठती रही है। इसकी रही सही कसर अब सोशल मीडिया ने पूरी कर दी है। कहा जाता है कि पढऩे का समय पहले टीवी ले रहा था, अब इस कड़ी में सोशल मीडिया व अन्य तरह के गैजेट भी जुड़ गए हैं। क्या सोशल मीडिया साहित्य को समृद्ध कर रहा है या फिर पतन की ओर ले जा रहा है? क्या ये साहित्य के प्रचार-प्रसार में किसी तरह की भूमिका निभा रहा है? इन बातों पर सोशल मीडिया पर सक्रिय युवा साहित्यकारों के विचारों में भी भिन्नता है। किंतु एक बात पर सभी सहमत हैं कि सोशल मीडिया ने गंभीर साहित्य भले ही पैदा न किया हो, लेकिन साहित्य के प्रचार में अपनी भूमिका जरूर निभा रहा है। इन साहित्यकारों के विचारों पर एक नजर…

यह नए जमाने का माध्यम है…

– बोधिसत्व, हिंदी कवि

मैं इस बात से समहत नहीं हूं कि सोशल मीडिया का साहित्य पर नकारात्मक प्रभाव है। दरअसल अच्छे लेखन का इससे कोई संबंध नहीं है। मुख्य बात लेखन है। वो किस माध्यम से हो रहा है, यह बात मायने नहीं रखती है। लिखने वाला अपने लिखे के लिए जिम्मेदार है। असल बात लिखे गए कथन की गुणवत्ता की है, माध्यम की नहीं। और गुणवत्ता लेखक की चेतना पर निर्भर करती है। कोई लेखक यदि महत्ववपूर्ण बात कह रहा है, तो सोशल मीडिया उसे एक मंच प्रदान कर रहा है।
सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति के अवसर बढ़ाए हैं। फेसबुक जैसे माध्यम पर रात को बारह बजे भी रचना लिखकर दूसरों से शेयर कर सकते हैं। पिछले दिनों मेरी एक कविता व्हट्सएप के माध्यम से हजारों पाठकों तक पहुंची और सराही गई। यह बात जरूर ध्यान में रखनी होगी कि रचना कमजोर होगी तो वो प्रशंसा नहीं पा सकती।
एक बात स्पष्ट कर दूं, सोशल मीडिया पर जो कथित लेखक लिख रहे हैं, उनके लिखे को कोई मान्यता नहीं है। रचना में मूल्यवान बात होगी, तो कोई यह नहीं कहता कि ये फेसबुक की रचना है या फेसबुक पर लिखने वाले ने लिखी है। यदि आपके पास कहने को कुछ है, तो उसे दूसरों तक पहुंचाने के लिए किसी न किसी माध्यम की जरूरत पड़ेगी। यह माध्यम सोशल मीडिया भी हो सकता है।
पुराने जमाने में भोजपत्र पर लिखा जाता था, फिर कपड़े पर लिखा जाता रहा- इससे कही जाने वाली बात पर कोई अंतर नहीं पड़ता। यह नहीं कहा जा सकता कि भोजपत्र पर लिखा गया है, इसलिए कमतर है और पत्थर पर लिखा गया महत्वपूर्ण है। केवल पत्थर पर लिख देन से लिखा गया महत्वपूर्ण नहीं हो जाता। क्या लिखा गया है, ये महत्वपूर्ण है, विचार का महत्व है। कोई रचना सोशल मीडिया पर है, केवल और केवल ऐसा होने से उसका महत्व कम नहीं हो जाता। ऐसा होता तो लोक साहित्य का कोई महत्व ही नहीं रह जाता। वो मौखिक परंपरा से चलता रहा है।
सोशल मीडिया जैसे माध्यम नए संचार माध्यम हैं। इनका उपयोग महत्वपूर्ण है। इसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता। बात कहने के लिए यह नई पीढ़ी का माध्यम है और इसमें कहीं जाने वाली बात भी महत्वपूर्ण हो सकती है। यही कारण है कि इसमें यदि गंभीर रचना सामने आती है, तो उस पर सोशल मीडिया की रचना होने का टैग नहीं लग जाता। अपनी बात कहने के माध्यम हर समय में बदलते रहे हैं। सोशल मीडिया नए जमाने का माध्यम है, और बदलाव के साथ बदलना ही बेहतर होता है।

सोशल मीडिया ने साहित्य को तुरंता बना दिया है

-जितेन्द्र श्रीवास्तव, युवा कवि एवं आलेचक

सोशल मीडिया का जन्म कभी वैकल्पिक मीडिया के रूप में हुआ था लेकिन धीरे-धीरे उसका दबदबा इस कदर बढ़ गया कि मुख्य धारा का मीडिया भी उसके प्रभाव से बच नहीं पाया है। साहित्यिक पत्रिकाएं ब्लॉगों पर प्रकाशित साहित्य को ससमान प्रकाशित कर रही हैं। ब्लॉग पर चलने वाली चर्चाओं को न्यूज एंकर प्राइम टाइम का विषय-वस्तु बनाने लगे हैं। यह मीडिया के बारे में बदली हुई सोच का नतीजा है। लेकिन यहीं यह कहना भी जरूरी है कि सोशल मीडिया पर सब कुछ अनुकरणीय नहीं है। वहां प्रकाशित सामग्री का अधिकांश व्यक्तिगत है।
सोशल मीडिया ने एक ओर जहां अभिव्यकित की स्वतंत्रता को मजबूती दी है वहीं दूसरी ओर अराजकता को भी प्राश्रय दिया है। सोशल मीडिया ने साहित्य को तुरंता बना दिया है। तुरंत लिखो, तुरंत छपो और तुरंत छा जाओ। कहने की आवश्यक्ता नहीं कि साहित्य के संदर्भ में सोशल मीडिय ने अधैर्य का अंतहीन सिलसिला शुरू किया है। प्रतिक्रिया और लाइक्स की अकांक्षा सामाजिक-सांस्कृतिक उद्देश्यों पर भारी पड़ रही है। हम ऐसे समय में आ चुके हैं जब हमें सोशल मीडिया के सामथ्र्य और सीमा -दोनों को समझना होगा। स्वीकृति पा चुके कवि-कथाकार अपनी रचनाओं को सोशल मीडिया पर ला रहे हैं। जाहिर है, सोशल मीडिया के मायम से असंख्य पाठक मिलने की संभावना बनी रहती है। जरूरत बस इस बात की है कि सोशल मीडिया और साहित्य के संबंध को पतनशील होने से बचाया जाए।

इसने पाठक वर्ग तो बढ़ाया ही है…

-रजनी मोरवाल, कथाकार

सोशल मीडिया पर साहित्य और लेखकों की उपस्थिति है भी यह प्रश्न विचारणीय है क्योंकि जो लेखक स्थापित माने जाते हैं वे यहां क्या खालिस साहित्य परोस रहें हैं? या यहां वे सिर्फ हाइलाइट लिखते हैं? और यदि वे सिर्फ हाइलाइट लिखते हैं तो वे लोगों में एक कोतुहल तो अवश्य ही उत्पन्न कर देते हैं। किंतु इसे साहित्य तो हरगिज नहीं माना जा सकता, हां स्थापित लेखकों की टिप्पणियों से ये तो जरूर होता है कि लोग उसे अपने-अपने हिसाब और समझ से विस्तार देते हैं, कम-से-कम एक जागरूकता तो विकसित होती ही है। इधर के कुछ वर्षों में सोशल मीडिया ने लेखकों की एक बड़ी फौज पैदा की है, लेकिन फिर भी मुख्यधारा में उनका कहीं कोई नाम नहीं है, न ही उनके लिखे से समाज में कहीं कोई हलचल या बदलाव दिखाई देता है।
साहित्य और सोशल मीडिया का रिश्ता चाहे मुख्यधारा से जुड़ नहीं पाया, किंतु साहित्य की पहुंच उन लोगों तक जरूर हुई है जो लिखने-पढऩे से दूर रहते थे। अत: साहित्य के विकास में सोशल मीडिया ने एक अहम भूमिका तो निभाई ही है। इस प्लेटफॉर्म ने कुछ लोगों में लेखन की छुपी प्रतिभा को ढूंढ़ निकाला है तो एक बड़ा पाठक वर्ग भी उत्पन्न किया है। कई राज्यों में होने वाले लिटरेचर फेस्टिवल और उनमें जनसमूह की भारी तादाद इसका सबूत है कि लोगों में साहित्य के प्रति रुचि पुन: जागृत हुई है। इसे सोशल मीडिया की देन ही कहा जाना चाहिए कि आज कई शहरों और छोटे-छोटे कस्बों में सोशल मीडिया से जुड़े लेखकों ने समूह भी बना लिए हैं जो मासिक गोष्ठियां आयोजित करते हैं, यह साहित्य का प्रचार-प्रसार ही है किंतु इसे गंभीरता से लिया जाना अभी बाकी है। सोशल मीडिया से उपजे साहित्य को मुख्यधारा से जोडऩे में एक लंबी दूरी तय करनी होगी इसके लिए साहित्य की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं किया जा सकता।

साहित्य को लोकप्रिय बना रहा है सोशल मीडिया

विमलेश त्रिपाठी, युवा कवि

सोशल मिडिया पर कुछ स्थापित साहित्यकार भी मौजूद हैं, वे लागातार अपनी सक्रियता से सार्थक हस्तक्षेप कर रहे हैं। इसके साथ ही कुछ नए लोग भी हैं जिन्होंने अभी-अभी लिखना शुरू किया है, वे लागातार अपनी रचनाएं यहां साझा करते हैं। कहना चाहिए कि वर्तमान समय में कई लोग हिंदी की पत्रिकाओं की मार्फत नहीं, बल्कि सोशल मीडिया के जरिए ही स्वयं को स्थापित करने में सफल हुए हैं। मैं खुद यह मानता हूं कि शोसल मीडिया पर होने के कारण मुझे जानने और पढऩे वालों की संख्या बढ़ी है। साहित्य में घटने वाली हर घटना पर यहां लोग बहस कर रहे हैं। यह जरूर है कि कुछ बहसें नाकारात्मक भी हो जाती हैं लेकिन कई बहसों से अच्छे निष्कर्ष भी आते हैं। मेरे ख्याल से सोशल मीडिया ने साहित्य को और लोकप्रिय बनाने का ही काम किया है। मैं साहित्य और सोशल मीडिया के संबंध को साकारात्मक रूप में देख रहा हूं।

बड़ी रचना पढऩे की आदत छूट रही है

-हरे प्रकाश उपाध्याय, युवा कवि

कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो सोशल मीडिया पर हिंदी के सारे ही लेखक कमोबेश सक्रिय हैं, पर सोशल मीडिया पर उनकी सक्रियता से साहित्य का कोई भला हो रहा है, ऐसा मुझे नहीं लगता। सोशल मीडिया के विकास से न तो कोई उल्लेखनीय कृति रच ली गई है और ना ही, तीन-चार सौ बिकने वाली किताबें तीन-चार हजार बिकने लगी हैं यानी न रचनाशीलता का कोई विकास हुआ है और ना ही पाठकीयता का। पर एक बात माननी पड़ेगी कि सोशल मीडिया ने हिंदी में लिखने वाले बहुत सारे नए लोगों को जन्म दिया है, उन्हें प्रेरित किया है। मगर उनमें से अधिकांश का लेखन किसी काम का नहीं है। यह भी यहां ध्यान में रखने योग्य बात है कि छोटी टिप्पणियां या कोई छोटी कविता तो सोशल मीडिया के माध्यम से पाठकों तक पहुंच सकती हैं पर वैसा ही स्कोप वहां किसी बड़ी रचना के लिए नहीं है। सोशल मीडिया पर हड़बड़ी बहुत है। इससे गंभीर साहित्य का नुकसान भी बहुत हो रहा है। लोगों की किताब या किसी बड़ी रचना को पढऩे की आदत छूट रही है। पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं पर रिस्पॉन्स कम मिलने लगा है। बड़ी से बड़ी रचना पर बधाई संदेश मैसेंजर/वाट्सएप में आने लगे हैं। उन पर कोई गहरा विश्लेषण या विस्तृत प्रतिक्रिया दुर्लभ होती जा रही है। हमने चीजों की गहराई में जाना छोड़ दिया है। सारा समय तो सोशल मीडिया पर सूचनाओं को प्राप्त करने या देने में ही चला जा रहा है। गंभीर साहित्यिक चर्चाएं जो जगह-जगह हुआ करती थीं, उनका भी बड़ा नुकसान हुआ है।

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