जबलपुर शहर में राजनीतिक दलों के हैं तमाम कर्मठ कार्यकर्ता, अनदेखी होने पर भी नहीं करते शिकायत
जबलपुर•Mar 12, 2019 / 08:26 pm•
shyam bihari
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जबलपुर। राजनीति से देश चलता है। देश में हर जगह राजनीति होती है। राजनीतिक दल इसके लिए अवसर बनाते हैं। बिगाड़ते भी रहते हैं। कार्यकर्ता इसके लिए खाद-पानी का काम करते हैं। इसके जरिए वे खुद भी फलीभूत होते हैं। कुछ मेहनती कार्यकर्ता होते हैं। कई मौकापरस्त होते हैं। ईमानदार और स्मार्ट कार्यकर्ता भी होते हैं। कर्मठ कार्यकर्ताओं की श्रेणी अलग होती है। ये ऐसे कार्यकर्ता होते हैं, जो पार्टी को दीवानों की तरह चाहते हैं। अपने नेता को हीरो मानते हैं। अपना सबकुछ दांव पर लगाने की इच्छाशक्ति भी रखते हैं। ये पार्टी के अच्छे दौर में भी साथ होते हैं। बुरे दौर में भी पेंडुलम नहीं बनते। इनके लिए राजनीतिक दल जीने-मरने का सवाल होते हैं। बहस तो ऐसे करते हैं, मानो उनके लिए पार्टी और नेता ही सबकुछ हैं। इनका राजनीतिक दीवानापन महबूबा से चाहत की तरह होता है। नेता रूठ जाए, तो उसे मनाने में कसर नहीं छोड़ते। खुद रूठ जाएं, तो उम्मीद नहीं करते कि उनका नेता उन्हें मनाने आएगा। इस मामले में जबलपुर शहर भी खास है। यहां दोनों प्रमुख दलों के सैकड़ों दीवाने कार्यकर्ता हैं। वे वर्षों से दलों के साथ जुड़े हैं। चुनाव निशान के लिए कुछ भी कर सकते हैं। मारपीट कर सकते हैं। मारपीट के शिकार भी हो सकते हैं। नेताओं को यहां भइया कहने का चलन है। अपने बड़े भाई को हो सकता है भइया कहने में संकोच करें, लेकिन नेताओं को ‘भइया ऐसे कहते हैं, जैसे इससे बड़ी गर्व वाली कोई बात हो ही नहीं सकती। लेकिन, इन कार्यकर्ताओं में ‘बड़प्पन गजब का होता है। ये सामने वाले से किसी रियासत की चाहत नहीं रखते। टिकट की भी मांग नहीं करते। बस इतना चाहते हैं कि दल और नेता और उन्हें अपना कार्यकर्ता मानते रहें। इस बड़प्पन के अपने फायदे और नुकसान हो सकते हैं। लेकिन, कार्यकर्ता तो ‘निर्विकार भाव से अपनी चाहत बरकरार रखता है।
लोकतंत्र की ताकत भी यही है कि नेता और कार्यकर्ता एक दूसरे पर भरोसा करें। दोनों एक सिक्के दो पहलू की तरह रहें। लेकिन, नेताओं के फायदे और नुकसान का समीकरण अलग होता है। वे ज्यादा निवेश करते हैं। बदले में ज्यादा मुनाफे की उम्मीद करते हैं। इसलिए वे कार्यकर्ताओं से बेवफाई करने को राजनीतिक समीकरण मानते हैं। यह बात जबलपुर के नेताओं में भी है। आमतौर पर वे भावुक नहीं हैं। कार्यकर्ता भावुकता के अतिरेक में चला जाता है, तो अफसोस की स्थिति में पहुंच जाता है। लेकिन, अच्छी बात है कि वह उम्मीद नहीं रखता। इसलिए राजनीति की राह में फायदे-नुकसान के गणित से दूर रहता है। जबलपुर में इस तरह के कार्यकर्ताओं की भीड़ तो नहीं बढ़ रही है। लेकिन, जो हैं, वे बने हुए हैं। नेता इसका चाहें तो फायदा उठाएं। मन हो तो सिर्फ मोहरा बनाएं।