रेडियों की जगह टेलीविजन ने ली और अब टेलीविजन की जगह एंडराइड मोबाइल हावी हो चुका है। मनोरंजन के साधन रेडियो को रखने और उसके इस्तेमाल करने पर बकायदा लाइसेंस लेना पड़ता था। यह लाइसेंस डाकघर से दो तरह से बनते थे। इसमें दो बैंड के रेडियो लाइसेंस के लिए साढ़े सात रुपए सालाना शुल्क और दो से आठ बैँड तक रेडियो के लिए लाइसेंस का शुल्क पन्द्रह रुपए सालाना चुकाना पड़ता था।
बिना लाइसेंस से रेडियो के इस्तेमाल और उसे रखने पर दुगुनी से तीगुना जुर्माना वसूल करने का अधिकार डाकघर के निरीक्षक के पास था। एक निरीक्षक की बकायदा ऐसे रेडियों के रखने वालों पर निगरानी और शुल्क जमा कराने के लिए जिम्मेदारी थी।
बिना लाइसेंस पाए जाने पर यह निरीक्षक मौके पर पहुंचकर चालान भी काटता था। दुकानदारों की माने तो करीब चालीस साल पहले पोर्टबेल टीवी की तरह रेडियो के दाम महज पांच सौ रुपए थे।
इलाके के कई बुजुर्गो रामेश्वरलाल, भीमराज, महावीर प्रसाद आदि का कहना है कि जब भारत और पाकिस्तान के बीच 1971 का युद्ध हुआ तो इस बॉर्डर इलाके में सूचना का जरिया एक मात्र सहारा था यह रेडियो। बीबीसी की न्यूज सुनने के लिए लोग आतुर रहते थे।
युद्ध के दौरान अधिकांश लोग अपने रिश्तेदारों या परिचितों के पास जिला मुख्यालय से पलायन कर चुके तो कईयों ने अपने परिवारिक के लोगों को सुरक्षित इलाके जैसे दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान के उन जिलों में जहां बॉर्डर एरिया नहीं है, वहां भेज दिया था, तब बॉर्डर के हालात के बारे में रेडियो से समाचार सुनने से अपडेट रहते।
मैकेनिक मोमनराम लकेसर का कहना है कि वह 48 साल से रेडियो दुरुस्त करने का काम कररहा है। 35 से 40 साल पहले रेडियो का क्रेज अधिक था। लेकिन अब यह बीते जमाने की बात हो गई है।
इसके बावजूद कई ऐसे शौकीन है जो अपने पूर्वजों के रेडियों का इस्तेमाल कर रहे है। जिस दाम पर रेडियो नया मिल जाता था, अब उसकी बॉडी भी नहीं मिलती। खेतों और गांवों में अब भी रेडियों रखने के शौकीनों की संख्या में एकाएक कमी आई हैै।