कुंभारवाड़ में तीन सौ वर्ष पुराने हनुमान मंदिर परिसर में प्रजापति समाज की ओर से डोरी रास की परंपरा निभाई जा रही है। डोरी रास भगवान कृष्ण की रास लीला की याद दिलाता है। जानकार बताते हैं कि देश में करीब 65 रास हैं, जिनमें से कई लुप्त हो चुके हैं तो कई लुप्तप्राय: हैं।
गणदेवी का प्रजापति समाज अपनी इस अमूल्य धरोहर को बचाने की हर संभव कोशिश कर रहा है। डोरी रास हनुमान जी की भक्ति के साथ कृष्ण का गोपियों के साथ दैवीय प्रेम की परिभाषा व्यक्त करता है। यह किसने शुरु करवाया यह भी संशोधन का विषय हो सकता है।
दंत कथा के अनुसार मंदिर के पास एक तालाब था, जिसमें कुम्हार का एक बेटा नहाने के दौरान डूब गया था। काफी ढूंढने के बाद भी उसका शव नहीं मिला। बाद में गांव के साहूकार देसाई को हनुमान जी ने स्वप्न में आकर कहा कि डूबने वाले युवक के साथ पानी से बाहर आ रहे हैं और उन्हें लेने के लिए आना है। दूसरे दिन पानी में डूबा युवक हनुमान जी की मूर्ति के साथ तालाब से बाहर निकला और मंदिर के पास आकर रुका। वहां हनुमान जी की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा की गई।
इस मंदिर में सवा सौ साल से यहां डोरी रास खेला जाता है। कलश स्थापना कर माता जी की श्रद्धा भाव से पूजा अर्चना और गरबा होता है। डोरी रास परंपरा के लुप्त होने की बुजुर्गों की चिंता को युवाओं ने दूर कर दिया है। उन्होंने उत्साह के साथ डोरी रास सीखा और अब नवरात्र में उसे खेलते हैं।
ऐेसे खेलते हैं मंदिर के पास एक लकड़ी पर गोलाकार रस्सियां बंधी रहती हैं। रस्सी पकडकर खेलने वाला एक ही दिशा की ओर घूमते हुए रास खेलते हुए रस्सियों को गूंठते हैं। इसके बाद फिर से उल्टी दिशा में घूमकर रस्सियां को खोल भी लेते हैं। यहां रास खेलने के लिए कोई खास पहनावा नहीं है। पहनावे को लेकर कोई पाबंदी नहीं होने से लोग आराम से यह रास खेलते हैं और परंपरा का निर्वहन करते हैं।