मेक इन इन्डिया योजना का भी असर नहीं हो रहा कपड़ा मशीनरी उद्योग पर?
भारत में उत्पादन के बावजूद सालाना १० हजार करोड़ की मशीनों का आयातदेशी के बजाय विदेशी मशीनें ज्यादा रास आ रही हैं कपड़ा उद्यमियों को
मेक इन इन्डिया योजना का भी असर नहीं हो रहा कपड़ा मशीनरी उद्योग पर?
प्रदीप मिश्रा
सूरत. एक ओर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी घरेलू निर्माताओं को प्रोत्साहन पर जोर दे रहे हैं और देशभर में उद्यमियों को इसके लिए प्रेरित किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर देश में कपड़ा मशीनें होने के बावजूद हर साल १० हजार करोड़ रुपए की विदेशी मशीनें आयात की जाती हैं। कपड़ा उद्यमियों का मानना है कि विदेशी मशीनें अधिक क्षमता वाली और टैक्नोलॉजीयुक्त होती हैं।
सूरत के कपड़ा उद्योग में साढ़े छह लाख लूम्स मशीनें, एक लाख से अधिक एम्ब्रॉयडरी मशीनें और लगभग साढ़े तीन सौ डाइंग-प्रोसेसिंग यूनिट हंै। यहां प्रतिदिन ढाई करोड़ मीटर कपड़ों का उत्पादन होता है। वीविंग, प्रोसेसिंग और स्पिनिंग, सभी प्रकार के कपड़ों के कारखाने हैं। यहां के कपड़े देशभर में ही नहीं, विदेश भी जाते हैं। इतने बड़े पैमाने पर कपड़ों का कारोबार होने के बाद भी मशीनों का उत्पादन करने वाले उद्यमियों को उतनी सफलता नहीं मिली, जो मिलनी चाहिए। मशीन उत्पादकों के अनुसार भारत में टैक्सटाइल मशीनों की सालाना खपत १७ से १८ हजार करोड़ रुपए की है। देश के मशीन उत्पादकों की क्षमता लगभग १०-११ हजार करोड़ रुपए की मशीनों के उत्पादन की है। इसके बावजूद स्थानीय उद्यमी चीन, जर्मनी, वियतनाम, तुर्की से मशीन आयात करते हैं। एक अनुमान के अनुसार हर साल १० हजार करोड़ रुपए की मशीनें आयात होती हैं। विदेशी मशीनें नर्ई टैक्नोलॉजी और कार्यक्षमता अधिक होने के कारण उद्यमियों को पसंद आती हैं। भारतीय उद्यमी अभी थर्ड जनरेशन की मशीनें बना रहे हैं, जबकि विदेशों में चौथी और पांचवीं जनरेशन की मशीनें बन रही हैं। टैक्सटाइल में वीविंग, एम्ब्रॉयडरी और डाइंग प्रोसेसिंग की ज्यादातर मशीनें विदेश से आयात होती हैं। स्पिनिंग की ज्यादातर मशीनें भारत में बनती हैं।
उदासीन नीतियां बनीं बाधा
कपड़ा उद्यमियों का मानना है कि भारत में टैक्सटाइल मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री और विकसित हो सकती थी, लेकिन सरकारी नीतियों के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है। सरकार विदेश से आयातित सेकेंड हैंड मशीनों पर सब्सिडी देती है। इस कारण उद्यमी नई मशीनें खरीदने के बजाय विदेश से मशीनें आयात करना पसंद करते हैं। पिछले कई साल यह सिलसिला चला। इसलिए यहां नई मशीनों का बाजार घट गया। इसके बाद एम्ब्रॉयडरी मशीनों का सिलसिला इतनी तेजी से आया कि यहां के उद्यमियों को मौका नहीं मिला। हाल ही टैक्निकल अपग्रेडेशन फंड नाम की योजना शुरू की गई है। इसमें कई बार टैक्निकल कारणों से फंड देर से मिलता है। सैकड़ों फाइलों का करोड़ों का फंड उद्यमियों को नहीं मिला। इस कारण भी नई मशीनों के व्यापार पर असर पड़ा है। इंडियन टैक्सटाइल एसेसरीज एंड मशीन मेन्युफैक्चर एसोसिएशन से जुड़े टैक्सटाइल मशीन मेन्युफैक्चर रजनीकांत बचकानीवाला ने बताया कि भारत के मशीन उत्पादक अपनी क्षमता का ७० प्रतिशत इस्तेमाल कर पाते हैं। प्रोसेसिंग और स्पिनिंग में यहां की मशीनें अच्छी मानी जाती हैं। देश में मशीनों का सालाना कारोबार १८ हजार करोड़ रुपए का है। यदि सरकार की नीतियों का साथ मिले तो देशी मशीनों का व्यापार और बढ़ सकता है।
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