करवाचौथ दो शब्दों से मिलकर बना है। ‘करवा’ यानी कि मिट्टी का बर्तन व ‘चौथ’ यानी गणेशजी की प्रिय तिथि चतुर्थी। प्रेम, त्याग व विश्वास के इस अनोखे महापर्व पर मिट्टी के बर्तन ‘करवे’ की पूजा का विशेष महत्त्व है, जिससे रात्रि में चंद्रदेव को जल अर्पण किया जाता है और पति की दीर्घायु की कामना की जाती है।
गणेश-पार्वती को करें प्रसन्न
रामचरितमानस के लंका कांड के अनुसार इस व्रत का एक पक्ष यह भी है कि जो पति-पत्नी किसी कारणवश एक दूसरे से बिछुड़ जाते हैं, चंद्रमा की किरणें उन्हें अधिक कष्ट पहुंचती हैं इसलिए करवाचौथ के दिन चंद्रदेव की पूजा कर महिलाएं यह कामना करती हैं कि किसी भी कारण से उन्हें अपने प्रियतम का वियोग न सहना पड़े।
नारदपुराण के अनुसार महिलाएं वस्त्राभूषणों से विभूषित हो गणेशजी व भगवान शिव, देवी पार्वती, कार्तिकेय की पूजा करें। उनके आगे पकवान से भरे हुए दस करवे रखें और भक्तिभाव से पवित्रचित्त होकर गणेशजी को समर्पित करें। समर्पण के समय यह कहना चाहिए कि भगवान गणेश मुझ पर प्रसन्न हों। उसके बाद सुवासिनी स्त्रियों और ब्राह्मणों को आदरपूर्वक उन करवों को बांट दें। रात्रि में चंद्रोदय होने पर भगवान रजनीश यानी कि चंद्रमा को अघ्र्य
प्रदान करें।
इसलिए देखते हैं छलनी से चांद
भक्ति भाव से पूजा के उपरांत व्रती महिलाएं छलनी में से चांद को निहारती हैं। पौराणिक मान्यता यह है कि वीरवती नाम की पतिव्रता स्त्री ने यह व्रत किया। भूख से व्याकुल वीरवती की हालत उसके भाइयों से सहन नहीं हुआ, उन्होंने चंद्रोदय से पूर्व ही एक पेड़ की ओट में चलनी लगाकर उसके पीछे अग्नि जला दी और प्यारी बहन से आकर कहा, ‘देखो चांद निकल आया है अघ्र्य दे दो।’
बहन ने झूठा चांद देखकर व्रत खोल लिया जिसके कारण उसके पति की मृत्यु हो गई। साहसी वीरवती ने अपने प्रेम और विश्वास से मृत पति को सुरक्षित रखा। अगले वर्ष करवाचौथ के ही दिन नियमपूर्वक व्रत का पालन किया जिससे चौथ माता ने प्रसन्न होकर उसके पति को जीवनदान दे दिया। छलनी से चांद देखने की परंपरा आज तक चली आ रही है।