हिन्दी की ‘गरम मसाला’, ‘ट्रैफिक सिगनल’, ‘अपार्टमेंट’ और ‘नो प्रॉब्लम’ में बतौर अभिनेत्री काम कर चुकीं नीतू चंद्रा की ‘मिथिला मखान’ बिहार में 2008 में कोसी नदी की विनाशकारी बाढ़ की पृष्ठभूमि पर आधारित है। प्राकृतिक आपदाएं आम लोगों की जिंदगी पर कैसे-कैसे दूरगामी प्रभाव छोड़ जाती हैं, फिल्म रील-दर-रील इनकी तस्वीरें पेश करती है। उस बाढ़ के वक्त नितिन चंद्रा ने बिहार-नेपाल सीमा पर राहत कार्यों में सहयोग किया था। उसी दौरान वे बिहार के लोगों के विस्थापन की त्रासदी से रू-ब-रू हुए, जो इस फिल्म का आधार बनी। सिनेमा तकनीक के लिहाज से भी यह उल्लेखनीय फिल्म है। अफसोस की बात है कि सिर्फ नफे की गणित समझने वाला फिल्म बाजार ऐसी फिल्मों के प्रति आंखें मूंदे रहता है। वह उन भोजपुरी फिल्मों के इर्द-गिर्द लट्टू की तरह घूमता है, जिनमें अश्लील दृश्यों और द्विअर्थी गानों की भरमार होती है।
रामायण में सीता को मिथिला प्रदेश के राजा जनक की पुत्री बताया गया है। आज बिहार, झारखंड और नेपाल के कुछ हिस्सों को मिथिला क्षेत्र कहा जाता है। मैथिली इसी क्षेत्र की भाषा है, जो भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल है। रामधारी सिंह दिनकर, फणिश्वर नाथ रेणू, नागार्जुन, देवकीनंदन खत्री, रामबृक्ष बेनपुरी, विद्यापति, शारदा सिन्हा, उदित नारायण आदि हस्तियां मिथिला क्षेत्र से ही उभरीं। ब्रिटिश लेखक जॉर्ज ऑरवेल का जन्म भी इसी क्षेत्र में हुआ था। साहित्य और सिनेमा के इतने बड़े नामों से जुड़े इस क्षेत्र की फिल्में पहचान के संकट से जूझ रही हैं। मैथिली सिनेमा का उस तरह विकास नहीं हो पाया, जैसा भोजपुरी सिनेमा का काफी पहले हो चुका है।
पहली मैथिली फिल्म ‘ममता गावैन गीत’ 1962 में बनी थी। इसमें रवींद्र नाथ टैगोर के गीतों को गीता दत्त, सुमन कल्याणपुर और महेंद्र कपूर ने गाया था। निर्देशक फणि मजूमदार की ‘कन्यादान’ (1965) भी उल्लेखनीय मैथिली फिल्म है। दुर्भाग्य यह रहा कि वितरण और विपणन के मोर्चे पर इन दोनों फिल्मों ने मात खाई। इसीलिए 58 साल में मैथिली फिल्मों की संख्या दहाई के अंक तक नहीं पहुंच सकी है। पिछले साल मुम्बई फिल्म समारोह (मामी) में निर्देशक अचल मिश्रा की मैथिली फिल्म ‘गमक घर’ ने सुर्खियां तो बटोरीं, लेकिन इसे भी सिनेमाघर नसीब नहीं हुए। यही हश्र चार साल पहले निर्देशक प्रशांत नागेन्द्र की ‘ललका पाग’ का हुआ था। मैथिली फिल्मकारों को एकजुट होकर अपनी फिल्मों को दर्शकों तक पहुंचाने का रास्ता खोजना चाहिए, वर्ना ‘जंगल में मोर नाचा, किसने देखा।’