इसे दूर-दूर के लोग देखने आते थे। कस्बे में परम्परानुसार प्रत्येक होली के तीसरे दिन भूड़ा पोल से ईलाहजी(बादशाह)की सवारी लाई जाती थी तथा चतरी पोल(महल रास्ते का दरवाजा)से शनेती(शवयात्रा) की सवारी निकाली जाती थी। दोनों सवारियां माणक चौक के समीप आमने-सामने खड़ी रहती थी दोनों ओर की सवारियों में शामिल लोग चंग की थाप पर साखियों की प्रस्तुति करते हुए संघर्ष का आह्वान करते थे।
साखियों की हार होते ही पत्थरों की बोछार शुरुहो जाती थी। भाटा-राड़ में सिर फूटने को शुभ माना जाता था। ऐसी मान्यता थी कि सभी बीमारियां व क्लेश दूर हो गए है। पत्थरों की लड़ाई के इस खेल में मनमुटाव व रंजिश लेस मात्र भी नहीं होता था। धार्मिक सौहार्द का प्रतीक इस खेल में वैष्णव, जैन, मुसलमान, हिंदू व अन्य सभी जाति समाज के लोग हिस्सा लेते थे, लेकिन पिछले तीन दशकों से इस लड़ाई (भाटा-राड़) की प्रथा रोक लगा दी है।
सिर्फ दोनों ओर से धार्मिक हर्षोल्लास के साथ सवारियां निकालकर माणक चौक एकत्र होते है। जहां पर साखियां व होली के गीतों पर युवा जमकर होली खेलते है। शाम को आमसागर, भूतेश्वर, बुद्धसागर, लाडपुरा व अन्य प्राकृतिक व पिकनिक स्थलों पर पहुंच कर गोठों का आयोजन किया जाता है। होली के पर्व पर आज भी बुजुर्गों व युवाओं द्वारा भाटा-राड़ याद किया जाता है।