– चायनीज आयटम का बायकॉट
– आत्म निर्भर भारत के लिए छोटे उद्योगों को बढ़ावा
– स्थानीय उद्योग को बढ़ावा देने के लिए उनका सामान खरीदें
– सोशल मीडिया पर चले अभियान से लोगों का मन बदला
ऐसे बदलता गया समय
– वह भी दिन थे जब उदयपुर में लकड़ी के कारीगरों को काम के आगे खाने-पीने तक का समय नहीं मिलता था। ऑर्डर पर ऑर्डर आते थे। जबकि एक समय था जब उदयपुर के खेरादीवाड़ा के काष्ठ कला मार्ग था जहां शायद ही कोई परिवार ऐसा था जो लकड़ी के खिलौनों का निर्माण नहीं करता हो। लगभग 150 परिवार रहते थे और सभी यही काम करते थे।
– चायनीज खिलौने व ऑनलाइन खिलौने की प्रतिस्पर्धा में इस उद्योग को बड़ा झटका भी लगा। मुश्किल से कुछ ही लोग इस काम से जुड़े रहे, बाकी धीरे-धीरे दूसरी तरफ डायवर्ट हो गए तो।
खिलौनों के लिए काम आने वाली खिरनी की लकड़ी का पेड़ नहीं बल्कि उसकी टहनियां काम में ली जाती थी। यह लकड़ी उदयपुर जिले के गोगुन्दा, केवड़ा की नाल, झाड़ोल (फलासिया) के जंगलों में बहुतायात पाई जाती है।
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इस तरह के बनते हैं खिलौने
लकड़ी की काठी, लट्टू, टिकटिक, टेबल लैम्प, शतरंज, फ्लावर पॉट, दीपक स्टेण्ड, झूमर, झाड़ लैम्प, चूड़ी स्टेण्ड आदि .
इनका कहना है…
यह सही है कि यहां के खिलौने की मांग कम हो गई थी लेकिन इस समय उम्मीदें बढ़ी है। लकड़ी के खिलौने को लेकर पर्यटक तो आते ही थे लेकिन अब स्थानीय लोग भी रूचि ले रहे है। देश में चले अभियान का असर है कि इस बाजार में फिर से चहल-पहल बढ़ी है। इस दीपावली से पहले अच्छे कारोबार की उम्मीद है।
– मुस्तनसीर, हाथीपोल दुकानदार
सरकार को भी इसे प्रोत्साहन देना चाहिए।
– संजय कुमावत व शिवकुमार शर्मा, (लकड़ी के खिलौने से जुड़े)
यहां का खिलौना उद्योग देश-दुनिया में प्रसिद्ध था। पहले जो पर्यटक उदयपुर आते थे, वे यहां से लकड़ी के खिलौने ले जाना नहीं भूलते थे। लेकिन, बाद में ये खिलौने बाजारों से गायब ही हो गए। इनके बजाय लोग चीनी खिलौनों को प्राथमिकता देने लगे। लेकिन, अब वापस ये समय है जब स्वदेशी कला को बढ़ावा देने का माहौल बना है। बाजार में अभी ये खिलौने भी खरीदें जा रहे है। बहुत उम्मीदें है।
– प्रेम कुमार, कलाकार