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वाराणसी

आम आदमी पार्टी जो 07 साल में ही यूपी की सियासत में कहीं गुम हो गई

-2014 में बड़ी दमदारी से चुनाव में उतरने वाली आप का इस बार नाम लेवा नहीं -पूर्वांचल अध्यक्ष, पद ही नहीं पार्टी तक छोड़ चुके- ऐसे में अब आप के दो लाख मतों के ध्रुवीकरण में जुटी हैं पार्टियां-क्या है वो वजह जिनके चलते आम आदमी पार्टी क्षेत्रीय पार्टी बन कर रह गई-2014 में लड़े थे पूर्वांचल की 24 सिटों पर अबकी महज 02

वाराणसीApr 12, 2019 / 02:11 pm

Ajay Chaturvedi

नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल

नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल

डॉ अजय कृष्ण चतुर्वेदी

वाराणसी. जनांदोलन से उपजी पार्टी जिसने वाराणसी सहित पूरे देश में नए राजनीतिक विकल्प का भरोसा जताया था वह पांच सालों में ही क्षेत्रीय पार्टी बन कर रह गई। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश से उसका नाता ही लगभग खत्म सा हो गया। कमोबेश यही हाल बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान में भी है। अब वह पर्टी सिर्फ दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और गोवा तक सीमित रह गई है। सबसे ज्यादा अगर इस पार्टी से छले गए तो वो हैं बनारस के मतदाता जिनोंने दो लाख से ज्यादा मत दिया। यानी इतना मत जिससे कम में इससे पूर्व के प्रत्याशी चाहे वह भाजपा के डॉ मुरली मनोहर जोशी रहे हों या कांग्रेस के डॉ राजेश मिश्र चुनाव जीत गए थे। अब पांच साल बाद सवाल यह कि ये दो लाख 09 हजार मतदाता कहां जाएं, किसके साथ खड़े हों। वर्तमान में बनारस फिर से एक ऐसे कद्धावर नेता की तलाश में है जो नरेंद्र मोदी के खिलाफ जमकर लड़ सके। चुनाव अधिसूचना जारी होने से कई महीना पहले से साझा उम्मीदवार की चर्चा चल रही है, लेकिन अब तक इस पर सहमति नहीं बन पाई है। हालांकि परिस्थितियां बहुत बदली नहीं हैं, आज किसान, जस्टिस और सेना का जवान मोदी के खिलाफ मोर्चा खोले है। वो उनके खिलाफ चुनाव लड़ने की तैयारी में है। लेकिन राजनीतिक दलों को जैसे सांप सूंघ गया है। ऐसे में सवाल यह कि वो दो लाख 09 हजार मतदाता जो खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं इस चुनाव में किस करवट बैठेंगे।
बता दें कि यही वह आम आदमी पार्टी है जिसने 2014 के चुनाव में केवल वाराणसी ही नहीं बल्कि पूर्वांचल की 24 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे। वाराणसी में जहां राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल को नरेंद्र मोदी के खिलाफ दो लाख 09 हजार से ज्यादा मत मिले तो जौनपुर में भी इस नवोदित पार्टी को 44000 मत मिले। कमोबेश यही हाल फतेपुर, कौशांबी, इलाहाबाद, फूलपुर, प्रतापगढ़, मिर्जापुर, गाजीपुर, सोनभद्र, चंदौली, देवरिया, आजमगढ़, मऊ, बलिया, कुशीनगर, गोरखपुर, महाराजगंज, संतकबीर नगर, खलीलाबाद, बस्ती, बांसगांव, मछली शहर, लालगंज सीटों पर भी रहा। बनारस सीट दुनिया भर के राजनीतिक विश्लेषकों और मीडिया के केंद्र में रही।
लेकिन चुनाव बीता, अरविंद केजरीवाल चुनाव हार गए। बनारस ही नहीं पूरे उत्तर प्रदेश और पूर्वांचल में ज्ययादातर उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो गई। इसके बाद पार्टी ने फिर से उठ खड़ा होने की मंशा भी नहीं जताई। अरविंद केजरीवाल तो बनारस को पूरी तरह से भूल ही गए। यानी मई 2014 के बाद से अब तक अरविंद केजरीवाल महज दो बार बनारस आए जिसमें एक पंजाब चुनाव से पहले 2017 में संत रैदास मंदिर में मत्था टेकने और उसी साल नोटबंदी के बाद बेनिया में सभा करने। यहां यह भी बता दें कि दोनों ही मौके बनारस को केंद्र करके नहीं थे। इस दौरान बनारस में चाहे जितने आंदोलन हुए चाहे किसान आंदोलन हो, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की छात्राओँ पर लाठीचार्ज का मसला हो, विश्वनाथ कॉरिडोर जैसे संवेदनशील मसला हो, गंगा का मसला हो किसी भी मुद्दे पर अरविंद केजरीवाल जो सोशल मीडिया के धुरंधर बल्लेबाज माने जाते हैं, एक ट्वीट तक नहीं किया। वह तब भी कुछ नहीं बोले जब बीएचयू के छात्रों के आंदोलन से जुड़ने के दौरान पार्टी कार्यकर्ताओं पर विश्वविद्यालय के सुरक्षाकर्मियों ने बर्बर लाठीचार्ज किया। यहां तक महिलाओं तक की पिटाई हुई।
ये तो बनारस की बात है, अन्य लोकसभा सीटों का भी यही हाल रहा। नतीजा धीरे-धीरे पूर्वांचल से पार्टी सियासी हाशिये पर चली गई। यह दीगर है कि हाल के दिनों में पार्टी के उत्तर प्रदेश प्रभारी और राज्यसभा सदस्य संजय सिंह कई बार वाराणसी आए, खास तौर पर विश्वनाथ कॉरिडोर के मसले पर विरोध जताया। गंगा के मसले पर विरोध जताया। पार्ट के तत्कालीन पूर्वांचल अध्यक्ष संजीव सिंह की पहल पर अयोध्या से काशी तक की यात्रा निकाली गई तो उसमें भी शमिल हुए। यही बेनियबाग के मैदान में आम आदमी पार्टी ने बड़ा सम्मेलन किया जिसमें बिहारी बाबू शत्रुघ्न सिन्हा भी आए। इन गिने चुने मौको को छोड़ दिया जाए तो आम आदमी पार्टी बनारस और पूर्वांचल को पूरी तरह से भूल गई।
वो बनारस, वो पूर्वांचल, वो उत्तर प्रदेश जिसने अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी को तब भी बड़ा समर्थन दिया था जब वह अन्ना हजारे के साथ दिल्ली के रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार और लोकपाल के मुद्दे पर आंदोलनरत थे। ये वही आंदोलन था जिसने अरविंद केजरीवाल को देश की राजनीति का विकल्प बताया था। ऐसा विकल्प जो धर्म, जाति, संप्रदाय, वंशवाद, परिवारवाद, भ्रष्टाचार के विरोध में था। एक मिस्टर क्लीन की छवि दी थी। लेकिन पांच सालों में सब कुछ खत्म सा हो गया।
इस संबंध में पत्रिका ने बात की आम आदमी पार्टी को नमस्ते कर चुके पूर्वाचंल अध्यक्ष संजीव सिंह से। संजीव जो खुद जमीन से जुड़े नेता हैं, छात्र राजनीति से आए और आम आदमी पार्टी को इसलिए चुना कि यहां भाई-भतीजावाद नहीं था। वह खुद कहते हैं कि उन्हें इस पार्टी और पार्टी के नेता में कुछ कर गुजरने का माद्दा दिखा था। लेकिन वह विश्वास 2015 ही टूटने लगा। और 2019 आते-आते पूरी तरह से मोहभंग हो गया। संजीव कहते हैं कि आज की तारीख में आम आदमी पार्टी और भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा में कोई भेद नहीं रहा। सभी एक ही थाली के चट्टे-बट्टे नजर आने लगे। अरविंद केजरीवाल भी पद लोलुपता के शिकार हो कर रह गए। उन्हें केवल अपनी दिल्ली के मुख्यमंत्री की गद्दी दिखाई दे रही है। उनका भ्रष्चाचार व पूंजीवाद का विरोध और समाजवाद सुशील गुप्ता पर आकर खत्म हो जाता है। आम आदमी पार्टी भी 1977 की जनता पार्टी, प्रफुल कुमार महतो की असम गण परिषद बन कर रह गई। सारे सिद्धांत खोखले साबित हो गए। वो आंतरिक लोकतंत्र वो सबसे बड़ा संविधान सब धूल की गर्त में दब गया।
लेकिन संजीव से जब उन दो लाख नौ हजार मतों की बाबत पूछा जाता है कि 2019 में वो कहां जाएंगे तो जवाब होता है कि कम से कम ये मतदाता धर्म, जाति, संप्रदाय, कथित राष्ट्रवाद के झंडे के नीचे तो नहीं आने वाले। प्रायस जारी है और अंतिम दम तक जारी रहेगा कि एक साझा प्रत्याशी आए। अगर होता है तो लड़ाई फिर जोरदार होगी, अन्यथा यह मत उन्हीं खेमों में बंट कर रह जाएगा जिसे केजरीवाल साहब कभी जानवरों की श्रेणी में रखते रहे और आज उनसे समर्थन मांग कर दिल्ली में तीन सीट पर लोकसभा का चुनाव लडने जा रहे हैं। ये वोट उन्ही के पाले में चला जाएगा जिसका अरविंद केजरीवाल ने यूपी के दो क्षेत्रीय दलों से दूरी बनाने का नारा दिया था। अगर ऐसा होता है तो यह लोकतंत्र के लिए घातक होगा क्योंकि एक लंबे समय के बाद जो आंदोलन 2012-13 में दिल्ली में शुरू हुआ था और जिस तरह से लोगों का जुटान हुआ था उससे लोगों का भरोसा उठ जाएगा।

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