इंटर के उत्तीर्ण प्रतिशत में गिरावट के संदर्भ में बनारस के शिक्षकों की लगभग एक राय रही। इसमें चार मुख्य वजहें सामने आईं इसके तहत, शिक्षा सत्र का बदला जाना, पाठ्यक्रम में परिवर्तन, परीक्षा का समय से पूर्व होना और परीक्षा केंद्रों पर जरूरत से ज्यादा भय का माहौल बनाना शिक्षाविदों का मानना है कि माध्यमिक शिक्षा परिषद के स्कूल-कॉलेजों में पढ़ने वाले विद्यार्थी हों या शिक्षक वो अब तक अप्रैल से मार्च वाले सत्र को आत्मसाद नहीं कर पाए हैं। नतीजा सत्र सैद्धांतिक रूप से तो अप्रैल में शुरू हो जाता है लेकिन कुछ ही विद्यालय ऐसे होते हैं जहां अप्रैल से पढाई शुरू हो जाती है। लेकिन ज्यादातर स्कूल-कॉलेजों में पढाई पहले की ही तरह जुलाई अंत या अगस्त से ही शुरू हो पाती है। अगस्त में पढाई शुरू हुई और दिसंबर आते-आते पहले प्रैक्टिकल फिर थ्योरी की परीक्षा का भूत सिर पर सवार हो जाता है। तकरीबन 15 दिसंबर के बाद प्रैक्टिकल परीक्षाएं शुरू हो जाती हैं। इस बार तो फरवरी में ही थ्योरी पेपर भी शुरू हो गए। लिहाजा कक्षाओं में पढ़ाई का वक्त ही नहीं मिला। कोर्स कंप्लीट नहीं हुए या हुए भी तो इतनी जल्दी-जल्दी में कि वो विद्यार्थियों के सिर से निकल गया। ग्रामीण इलाकों में यह ज्यादा घातक साबित हुआ।
फिर सीबीएसई की नकल कर एनसीईआरटी पैटर्न लागू कर दिया गया। इसके लिए सारे शिक्षक ही तैयार नहीं रहे तो वे विद्यार्थियों को क्या पढा पाते। नए पैटर्न के तहत कुछ स्कूल-कॉलेजों ने तो एनसीईआरटी की पुस्तकें अपने स्तर से जुगाड़ कर शिक्षकों को दे दिया तो वहां तो कुछ काम हो गया। लेकिन ज्यादातर स्कूल-कॉलेजों में ऐसा नहीं हो पाया। खास तौर से ग्रामीण इलाकों में। इसका भी असर पड़ा।
तीसरी बात परीक्षा इतनी जल्दी शुरू हो गई और इतने कम समय में खत्म हो गई तो उसका भी असर छात्रों पर पड़ा। वो इसके लिए तैयार नहीं थे। चौथी महत्वपूर्ण कमी है परीक्षा केंद्रों पर नकल रोकने के नाम पर जरूरत से ज्यादा भय का वातावरण पैदा करना। अब दो-दो सीसीटीवी कैमरे, वॉयस रिकार्डर। ऐसे में लड़के-लड़कियां बहुत सहमे-सहमे रहे। इसका मनोवैज्ञानिक असर उनके दिमाग पर पड़ा। ऐसे में जो मुक्त वातावरण में वह कर सकते थे वो नहीं कर पाए। यह जरूर है कि इससे नकल पर नकेल किसी जा सकी। लेकिन अच्छे बच्चों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
एक अन्य बात जो निकल कर आई वो है शिक्षकों की कमी। माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड का गठन हुए साल भर हो गया पर बोर्ड के क्रियाशील न होने से स्कूलों को अपेक्षित शिक्षक नहीं मिले। सरकार ने जो रिटायर्ड शिक्षकों को भर्ती करने का नियम निकाला उसमें योग्य शिक्षक कम ही आए। नतीजा सामने है।
” हाईस्कूल का परिणाम 80 फीसद तक पहुंच गया तो उसकी वजह प्रोज्केट वर्क था। इसमें स्कूल स्तर से ही छात्र-छात्राओँ को नंबर मिल गया जो फायदेमंद साबित हुआ। लेकिन इंटर में विज्ञान वर्ग को छोड़ दें तो वाणिज्य व कला वर्ग में न कोई प्रैक्टिकल है न प्रोजेक्ट। ऐसे में नए पाठ्यक्रम के तहत छात्रों को अपेक्षाकृत कम नंबर मिले। दूसरे मार्किंग भी ठीक से नहीं हुई। खास तौर पर अंग्रेजी विषय मे। अब पासिंग मार्क 23 है और कई ऐसे छात्र हैं जिन्हें 22-22 नंबर मिले है। अगर दो-तीन पेपर में 22-22 नंबर मिला तो उनका फेल होना तय है। बावजूद इसके मेरे विद्यालय में हाईस्कूल में 98 प्रतिशत तो इंटर में 96 प्रतिशत छात्र उत्तीर्ण हुए हैं।”-डॉ चारु चंद त्रिपाठी, प्रधानाचार्य भारतीय शिक्षा मंदिर इंटर कॉलेज
” शिक्षकों की लापरवाही काफी हद तक जिम्मेदार है। यह जानते हुए कि सत्र और पाठ्यक्रम में बदलाव हो गया है ज्यादातर विद्यालयों में सत्रारंभ के साथ पढ़ाई शुरू नहीं हुई जिसके चलते पाठ्यक्रम अधूरा रहा। तैयारी पूरी नहीं कर पाए छात्र। इसका असर पड़ना लाजमी था। दूसरे परीक्षा केंद्रों पर जरूरत से ज्यादा भय का वातावरण भी छात्रों की मनोदशा को प्रभावित कर गया।” डॉ़ हरेंद्र राय, माध्यमिक शिक्षक सेवा चयन बोर्ड के सदस्य व राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त प्रधानाचार्य
” परीक्षा में भय का वातावरण, आंख मूंद कर सीबीएसई की नकल और तैयारी के लिए छात्रों को पर्याप्त समय न मिलना जिम्मेदार है। दूसरे अपने ही यूपी बोर्ड को कमतर मापने लगे है। यूपी बोर्ड के स्कूल-कॉलेजों से मेधावी बच्चों के सीबीएसई स्कूलों में पलायन से इन स्कूलों में मेधा का स्तर गिरा। सामान्य स्तर के बच्चों संग शिक्षकों ने जितनी मेहनत की उसका शत-प्रतिशत वो ग्रहण नहीं कर पाए। लिहाजा उत्तीर्ण प्रतिशत गिरा। डॉ विश्वनाथ दुबे, प्रधानाचार्य सीएम एंग्लो बंगाली इंटर कॉलेज