2012 में प्रचंड बहुमत से सरकार बनाने के बाद ऐसा लगने लगा था कि अब यूपी में इस युवा की तूती बोलेगी। नाम भी टीपू था सो लोगों ने यह कयास लगाना शुरू कर दिया था कि अब तो टीपू सुल्तान की ही चलेगी, कम से कम उत्तर प्रदेश में। लेकिन पांच साल बाद अचानक गठबंधन की राजनीति का खुमार चढा और और एक दूसरे युवा से हाथ मिला लिया। लेकिन यह राजनीतिक दोस्ती लंबी नहीं खिंच पाई। चुनाव में भी करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। आगे यह दोस्ताना जय और बीरू की दस्ती में तब्दील नहीं हो सका। इसी बीच लोकसभा का चुनाव निकट आ गया। ऐसे में एक नए रिश्ते की शुरूआत हुई। लेकिन यह रिश्ता भी जमा नहीं। गठबंधन कामयाब नहीं हो सका। लोकसभा में सीटें तो दोनों को मिलीं पर उससे दोनों का कुछ खास बनने बिगड़ने वाला नहीं था। नए रिश्तेदार ने युवा रिश्तेदार पर हार का ठीकरा फोड़ते हुए किनारा कर लिया।
यहां बात समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष Akhilesh Yadav, तत्कालीन कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी और बसपा सुप्रीमों मायावती की हो रही है। बता दें कि राजनीतिक पंडितों की भविष्यवाणी के बावजूद अखिलेश ने पहले राहुल फिर मायावती से हाथ मिलाय। दोनों ही बार वह अपनी तरफ से ईमानदार रहे पर अन्य दोनों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। हालांकि अखिलेश के बार में राहुल ने कोई तल्ख टिप्पणी नहीं की लेकिन मायावती परंपरागत रूप से अखिलेश पर ही लोकसभा चुनाव में कम सीटें आने का ठीकरा फोड़ा और खुद को अलग कर लिया। हालांकि मायावती के तमाम आरोपों के बावजूद अखिलेश ने अपनी गंभीरता कायम रखी।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इसका नतीजा भी मिला उन्हें। फिलहाल यूपी में विपक्ष के नाम पर समाजवादी पार्टी ही नजर आ रही है। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि प्रियंका गांधी की तमाम कवायदों के बावजूद कांग्रेस खड़ी नहीं हो पा रही और जहां तक बसपा और मायावती का सवाल है तो केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार-2 आने के बाद बसपा सुप्रीमों मायावती का भाजपा को लेकर कई मामलों में रुख नरम ही दिखा। तीन तलाक बिल, एनआरसी, यूएपीए, अनुच्छेद-370 जैसे मामलों में बसपा ने सरकार का विरोध नहीं किया। कुछ मामलों में सदन से गैरहाजिर रह कर एक तरह से भाजपा का समर्थन ही किया। जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने के मामले में तो बसपा ने मोदी सरकार को खुला समर्थन दिया। खबरें तो यहां तक आईं कि तीन तलाक और धारा 370 पर पार्टी लाइन से अलग राय रखने के कारण ही दानिश अली को पार्टी के संसदीय दल के नेता पद से हटा दिया गया। माना यह जा रहा है कि मुस्लिम समाज में इसका गलत संदेश गया।
राजनीतिक विश्ले़ाषक कहते हैं कि इन सब मामलों में सपा का स्टैंड अलग रहा वह परंपरागत रूप से अपने सिद्धांतों पर अड़ी रही। ऐसे में इस पूरे घटनाक्रम में बसपा के मुकाबिल सपा, सरकार की ज्यादा मुखर विरोधी साबित हुई। साथ ही धर्मनिर्पेक्षता और भाजपा विरोध के मुद्दे पर सपा ने अपनी अलग स्थित बनाने में कामयाब रही। ऐसे में यूपी की सियासत पर नजर डालें तो बसपा की मुसलमानों के बीच साख कमजोर हुई। वो बताते हैं कि यूपी की विपक्ष की वर्तमान राजनीति में मुसलमानों के समर्थन का खासा महत्व है और सपा को इस मामले में बढ़त हासिल हो गई है। 2019 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी को मुसलमान वोट इसलिए भी मिले थे कि उसका सपा के साथ गठबंधन था।
राजनीतिक पंडित कहते हैं कि सपा ने हमीरपुर विधानसभा उपचुनाव में भले ही सपा प्रत्याशी मनोज कुमार प्रजापति को 29.29 प्रतिशत मत प्राप्त हुए और वह दूसरे स्थान पर रहे और भाजपा उम्मीदवार युवराज सिंह को 38.55 फीसद मत हासिल हुए और पार्टी ने इस सीट पर कब्जा बनाए रखा। लेकिन भाजपा की की जीत का अंतर घटा। उधर बसपा बीएसपी प्रत्याशी नौशाद अली महज 14.92 फीस मत ही हासिल कर सके जबकि हमीरपुर में बसपा कई दशकों से मजूबत स्थिति में रही है। बसपा ने हमीरपुर विधानसभा से मुस्लिम उम्मीदवार को चुनाव मैदान में उतारा था. जिन्हें मुस्लिम समाज में स्वीकार नहीं किया। अगर हमीरपुर में सिर्फ मुसलमानों और दलितों ने भी बीएसपी को वोट दिया होता, तो बीएसपी को इससे ज्यादा वोट मिलते ऐसे में माना जा रहा है कि बसपा को इस बार मुसलमानों के कम वोट मिले। बसपा के लिए यह बड़ा सवाल है जबकि सपा ने यहां भी मैदान मार कर खुद को प्रमुख विपक्षी होने का ओहदा हासिल कर लिया है।
राजनीतिक विश्लेक मानते है कि अगर सपा 2022 विधानसभा चुनाव के लिए किसी बड़े दल से गठबंधन नहीं करती है और चुनावी वादों में किसान, पशुपालक, दलित, युवा और अल्पंसख्यकों का ध्यान रखती है, तो उसकी संभावनाएं बेहतर हो सकती हैं। वैसे विधानसभा के अन्य उपचुनावों के परिणाम यूपी की राजनीति में सपा-बसपा की हैसियत की तस्वीर को कुछ और बेहतर तरीके से रेखांकित कर पाएंगे।