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वाराणसी

सपा-बसपा, कांग्रेस ने पूर्वाचल में लगाया जोर, भाजपा पर 2014 दोहराने का दबाव

-सपा-बसपा को मिला कर 2009 में मिली थी 15 सीटें -कांग्रेस को करना पड़ा था 06 सीटों से संतोष

वाराणसीMay 05, 2019 / 02:02 pm

Ajay Chaturvedi

राजनेता

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वाराणसी. दिल्ली के तख्त पर काबिज होने के लिए रास्ता उत्तर प्रदेश से ही हो कर गुजरना होता है। और यूपी को जीतने के लिए पूर्वांचल को जीतना जरूरी होता है। इस फॉर्मूले से 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में यूपी में सबसे ज्यादा सीटें हासिल करने वाली भाजपा अब 2019 की जंग फतह करने के लिए पूर्वांचल में पैठ बनाने की कोशिश में है। उधर सपा-बसपा गठबंधन और कांग्रेस भी इसी जुगत में है कि किसी न किसी तरह से पूर्वांचल की 27 सीटों में से ज्यादा से ज्यादा सीटों पर कब्जा किया जाए। ऐसे में अब छठवें और सातवें चरण में पूर्वांचल में रोचक मुकाबला देखने को मिलेगा।
बता दें कि इन अंतिम दो चरण में भाजपा अपनी जमीन बचाने की जद्दोजहद में है तो गठबंधन में बसपा और सपा दोनों ही अपनी खोई सीटों को फिर से हासिल करने की जुगत में है। वहीं कांग्रेस भी इस कोशिश में है कि किसी तरह से उसे पुनर्जीवन मिल सके। वैसे अगर छठवें चरण की बात करें तो इस 14 सीटों वाले चरण में गठबंधन से सबसे ज्यादा 11 सीटों से बसपा ही मैदान में है। वह अपनी खोई प्रतिष्ठा फिर से हासिल करने के लिए पूरी ताकत लगाए है। वहीं सातवें व अंतिम चरण की सीटों की बात करें तो गठबंधन में सपा को ज्यादा सीटें मिली हैं। पूर्वांचल को साधने के लिहाज से ही सपा मुखिया अखिलेश यादव को अपने पिता की सीट कायम रखने के लिए आजमगढ़ आना पड़ा है। इस गठबंधन से दूर कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को लाकर परंपरागत वोटबैंक में सेंधमारी की कोशिश की है।
पूर्वांचल की सीटों के 2009 के परिणाम पर गौर फरमाया जाए तो तीनों दलों के बीच बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि तब 21 में से सर्वाधिक 08 सीट बसपा, सपा 07 और कांग्रेस को 06 सीट मिली थीं। जबकि 2014 की बात की जाए तो केवल सपा ही ऐसी पार्टी रही जिसे एक सीट मिली थी वो भी तब जब खुद मुलायम सिंह आजमगढ़ से मैदान में उतरे थे। ऐसे में अब देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस और सपा-बसपा गठबंधन को कितनी सीटें मिलती हैं।
अगर बात बीजेपी की की जाए तो उसके लिए भी 2014 जैसे नतीजे दोहराना आसान नहीं है। वाराणसी जैसी सीट छोड़ दें तो पूर्वांचल की ज्यादातर सीटों पर बीजेपी को कड़ा मुकाबला करना पड़ रहा है। ऐसे में यूपी के बदले सियासी मिजाज के तहत बीजेपी के लिए पूर्वांचल को साधना काफी अहम हो गया है। यही वजह है कि पीएम मोदी और अमित शाह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुकाबले पूर्वी उत्तर प्रदेश पर ज्यादा फोकस कर रहे हैं। बीजेपी की प्रदेश इकाई पूर्वांचल के कई जिलों में मोदी की रैलियां कराकर माहौल को अपने पक्ष में बनाने की कोशिश में जुट गई हैं।
उधर कांग्रेस की बात करें तो पूर्वांचल को साधने के लिहाज से ही पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने अब तक चुनावों के दौरान सिर्फ अमेठी और रायबरेली तक सीमित रहने वाली प्रियंका को मैदान में उतारकर बड़ा सियासी मास्टरस्ट्रोक खेला है। यूपी में सपा-बसपा गठबंधन में कांग्रेस को शामिल नहीं किए जाने के बाद उभरे समीकरणों में प्रियंका का अचानक पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनना बेहद महत्वपूर्ण माना गया। प्रियंका के जरिये कांग्रेस यूपी में अपने खोये जनाधार को हासिल करने की जुगत में है।
दरअसल, पूर्वांचल ब्राह्मणों का मजबूत गढ़ माना जाता है। पूर्वांचल की ज्यादातर सीटों पर ब्राह्मण वोटरों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। एक दौर था जब ब्राह्मण पारंपरिक तौर पर कांग्रेस के समर्थक थे, लेकिन मंडल आंदोलन के बाद उनका झुकाव भाजपा की ओर हो गया। बाद में ब्राह्मण वोटरों के एक बड़े हिस्से का झुकाव मायावती की बसपा की तरफ भी हुआ और 2014 के आम चुनाव में इस तबके का झुकाव फिर भाजपा की ओर हो गया। माना जा रहा है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में इन्हीं ब्राह्मणों को एकजुट करने और अपनी तरफ लाने की रणनीति के तहत प्रियंका को पूर्वांचल की जिम्मेदारी सौंपी गई है। अब देखना यह देखना रोचक होगा कि प्रियंका अपनी जिम्मेदारी में कितनी खरी उतरती हैं। प्रियंका की सफलता और असफलता दोनों ही पार्टी के साथ खुद उनके राजनीतिक कैरियर के लिए भी महत्वपूर्ण होगा।
ये हैं लोकसभा सीटें
कुशीनगर, गोरखपुर, देवरिया, बांसगांव, फैजाबाद, बहराइच, श्रावस्ती, गोंडा, डुमरियागंज, महराजगंज, आंबेडकरनगर, बस्ती, संत कबीर नगर, आजमगढ़, घोषी, सलेमपुर, बलिया, जौनपुर, गाजीपुर, चंदौली, वारणसी, भदोही, मिर्जापुर, फतेहपुर, फूलपुर, इलाहबाद और प्रतापगढ़।

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