“कोचिंग संस्थानों का बढता मायाजाल, शिक्षा की गुणवत्ता को कर रहा कमजोर”
बोले- एमएमएम प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, गोरखपुर के संस्थापक कुलपति प्रो ओंकार सिंहकहा, दरअसल प्रतियोगी परीक्षाओं के पाठ्यक्रम है इसके लिए जिम्मेदारप्रतियोगी परीक्षाओं के पाठ्यक्रम शैक्षिक संस्थानों के पाठ्यक्र में होते ही नहींयही वजह है कि कक्षा 12 तक की शैक्षणिक गतिविधियों में कोचिंग की महत्ता बढी है
वाराणसी. कोचिंग संस्थानों का बढता मायाजाल, शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित कर रहा है। ये कोचिंग संस्थान बच्चों को प्रतियोगी परीक्षा उत्तीर्ण कराने में तो सफल हो जा रहे हैं पर इसका दूरगामी असर ये पड़ रहा कि बच्चों को विषय की पूरी जानकारी ही नहीं हो पा रही है जिसका परिणाम यह हो रहा कि बच्चो का समुचित ज्ञानवर्धन नहीं हो पा रहा है। यह कहना है मदन मोहन मालवीय प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, गोरखपुर के संस्थापक कुलपति प्रो ओंकार सिंह का।
पत्रिका से बातचीत में उन्होंने कहा कि कोचिंग और औपचारिक शिक्षण तंत्र का आंकलन करने से पता चलता है कि देश में उच्च माध्यमिक शिक्षा स्तर तक तो कोचिंग रूपी एक समानांतर शिक्षा प्रणाली परिपक्व हो गई है। समाज के अधिकाश हिस्से ने यह स्वीकार कर लिया है कि किसी भी बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने को कोचिंग में पढ़ाना जरूरी ही नहीं अनिवार्य है। यह साबित करता है कि समानांतर रूप से दो शिक्षण व्यवस्थाएं चल रही हैं। वह कहते हैं कि कोचिंग में पढ़ाना गलत नहीं है क्योंकि यह निश्चित ही अच्छी शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्यों से किए गए प्रयास में से एक है और प्रत्येक को आवश्यकतानुसार करना भी चाहिए। लेकिन यदि शैक्षणिक संस्थानो के साथ कोचिंग में पढ़ना अपरिहार्य हो जाए तो निश्चित ही चिंता का विषय है।
IMAGE CREDIT: patrikaछात्र स्कूलों को मात्र परीक्षा बोर्ड में अपने पंजीयन तथा अंतिम परीक्षा देने मात्र के लिए उपयोग में ला रहे वह कहते हैं कि वर्तमान में उच्च माध्यमिक स्कूलों में यह देखा जाता है कि अच्छी संख्या में छात्र स्कूलों को मात्र परीक्षा बोर्ड में अपने पंजीयन तथा अंतिम परीक्षा देने मात्र के लिए उपयोग में लाते हैं। कोचिंग में महत्वपूर्ण विषयों का अध्ययन ग्रेजुएशन की प्रवेश परीक्षाओं में अव्वल स्थान प्राप्त कर लेते हैं। यह स्थिति कतिपय विद्यार्थियों के लिए सफलता का मार्ग प्रशस्त करते हुए शैक्षणिक संस्थानों की उपलब्धियों को तो बढ़ाती है लेकिन शिक्षण संस्थानों को गुणवत्तापरक संपूर्ण शिक्षा देनने की जिम्मेदारी निर्वहन के अवसर से वंचित कर देती है। वह कहते हैं कि तकनीकी पाठ्यक्रमों में प्रवेश परीक्षाओं के गणित, भौतिकी व रसायन विज्ञान विषय आधारित होने के कारण छात्र इन विषयों से इतर विषयों को अहमियत नहीं देते और शैक्षणिक संपूर्णता से वंचित रह जाते हैं। इसका अहसास उनके वास्तविक जीवन में प्रवेश करने पर भाषा व जीवनोपयोगी ज्ञान कौशल के अभावस्वरूप देखी जा सकती है।
किस भी काल व परिस्थिति में शिक्षा व्यवस्था की परिकल्पना में कोचिंग का कभी कोई स्थान नहीं रहा शिक्षा प्रणाली के मौलक स्वरूप का संपूर्णता से परीक्षण यह स्थापित करता है कि किसी भी काल व परिस्थिति में शिक्षा के मौलिक स्वरूप का संपूर्णता से परीक्षण यह स्थापित करता है कि किस भी काल व परिस्थिति में शिक्षा व्यवस्था की परिकल्पना में कोचिंग का कभी कोई स्थान नहीं रहा है। लेकिन इसके बावजूद भी कोचिंग का प्रचार-प्रसार होता जा रहा है। उन्होने कहा कि सदैव से ही शिक्षार्थियों की समस्त शैक्षणिक आवश्यकताओं को उनके अध्ययनरत संस्थानों के माध्यम से ही पूरा कराया जाना निर्धारित रहा है। ऐसी दशा में कोचिंग के माध्यम से शैक्षणिक जरूरतों को पूर्ण कराए जाने के चलन पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।
अब संगठित क्षेत्र में बड़े-बड़े कोचिंग केंद्र वह बताते हैं कि वर्तमान में कोचिंग के स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ है और इनके पुराने असंगठित स्वरूप के साथ अब संगठित क्षेत्र में बड़े बड़े कोचिंग केंद्रों तथा ऑनलाइन कोचिंगों का चलन प्रचालित हो रहा है। इस प्रकार अब लगभग प्रत्येक स्तर की औपचारिक शिक्षा के लिए निर्दिष्ट शिक्षण संस्थानों के साथ में समानांतर रूप से कोचिंग की व्यवस्था उपलब्ध हो चुकी है। इस प्रकार की समानांतर शिक्षा व्यवस्थाओं से निश्चित ही प्रत्येक स्तर के शिक्षण संस्थानों में अध्ययनरत छात्रों की पढाई की कठिनाइयों को दूर करते हुए अच्छी शिक्षा ग्रहण करने के अवसर तो उपलब्ध हो गए हैं लेकिन इस परिपक्व हो रही नई व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं का मूल्यांकन जरूरी है।
उचित गुणवत्ता की शिक्षा उपलब्ध न होने की वजह से ही छात्रों को कठिनाई कोचिंग की प्रथम दृष्टया आवश्यकताओं तथा सकारात्मक व नकारात्मक प्रभावों पर नजर डालें तो उचित गुणवत्ता की शिक्षा उपलब्ध न होने की वजह से ही छात्रों को कठिनाई निराकरण व ज्ञानार्जन के लिए विकल्प स्वरूप कोचिंग का सहारा लेना पड़ता है। इस प्रकार कोचिंग लेने वाले छात्रों में कोचिंग से ज्यादा लाभ मिलने की वजह से अपने औपचारिक शिक्षण संस्थानों में कराये जा रहे अध्यापन कार्यों के प्रति रुचि कम होती जाती है। ऐसे में शिक्षण संस्थानों की कक्षाओं में अनुपस्थितियां बढने लगती हैं। शिक्षण संस्थानों में अनुपस्थित रहने से छात्रों को प्रायोगिक विषयों के सुचारु अध्ययन के अवसर का नुकसान होता है जिसकी भरपाई कोचिंग के माध्यम से नहीं हो पाती है। साथ ही छात्रों में कोचिंग तथा शिक्षण संस्थान में दिए जा रहे समय की वजह से सदैव ही समस्त विषयों के स्वाध्याय तथा शिक्षणेत्तर गतिविधियों के लिए समय का अभाव हो जाता है और स्वाध्याय के अभाव में शिक्षित होने का प्रमाण पत्र मिलने के बाद भी संपूर्णता में गुणवत्ता कुप्रभावित होती जाती है। इस प्रकार की दो आपस में अनाच्छादित व्यवस्थाओं के चलते कतिपय छात्रों में मानसिक तनाव व शारीरिक थकावट जैसे दुष्प्रभाव दिखाई देते हैं। प्रो सिंह कहते हैं कि प्रत्येक मनुष्य अपने बाल्यकाल से आगे की जीवन यात्रा में अपने जीवनकाल का बड़ा हिस्सा अध्ययन में ही खर्च करता है और औपचारिक रूप से एक बार ही शिक्षा ग्रहण करता है जिसकी गुणात्मक कमियों का दंश जीवन भर व्यक्ति को स्वंय तथा समाज को अपरोक्ष रूप से गुणात्मकता की गिरावट के रूप में झेलना पड़ता है।
प्रतियोगी परीक्षाओं में ऐसी क्षमताओं का मूल्यांकन किया जाता है जो सीधे शैक्षणिक संस्थानों के पाठ्यक्रमों में नहीं होते प्रो सिंह कहते हैं कि ऐसा नहीं समझा जाना चाहिए कि कोचिंग व्यवस्था औचित्यपूर्ण नहीं है व इका योगदान नहीं है। वास्तविकता यह है कि आज की कक्षा 12 तक की शैक्षणिक गतिविधियों में कोचिंग की महती भूमिका हो गई है और यह भूमिका आगे स्नातक स्तर तक बढती जा रही है। देश भर में लगभग सभी प्रतियोगी परीक्षाओँ के लिए कोचिंग की प्रचुरता यह बताने के लिए काफी है कि कोचिंग की नितांत आवश्यकता है। ऐसी प्रतियोगी परीक्षाओं जिनके पाठ्यक्रम किसी एक औपचारिक शिक्षण पर आधारित नहीं हैं कि कोचिंग चिंता का विषय नहीं है। कारण इन परीक्षाओं में कतिपय ऐसी क्षमताओं का मूल्यांकन किया जाता है जो सीधे शैक्षणिक संस्थानों के अंतर्गत निर्धारित पाठ्यक्रमों में नहीं होते। लेकिन आज बहुत से उदाहरण उपलब्ध हैं जहां औपचारिक शिक्षा के पाठ्यक्रम आधारित परीक्षाओं की तैयारी में छात्रों को कोचिंग के माध्यम से लगभग संपूर्ण पाठ्यक्रम पुनः पढना पडता है चाहे वह किसी स्तर के औपचारिक शिक्षण पाठ्यक्रम आधारित प्रतियोगी परीक्षा हो। यह प्रचलन कहीं न कहीं औपचारिक शिक्षा में रह रही कमियों की ओर परोक्ष रूप से इशारा करता है। ऐसा भी देखा जाता है कि कुछ परिस्थितियों में शैक्षणिक संस्थानों ने ऐसी पाठ्यक्रम आधारित परीक्षाओँ की कोचिंग का संचालन आधिकारिक रूप से अपने परिसरों में भी कराना प्रारंभ कर दिया है जो कि अत्यंत गंभीर है क्योंकि कालांतर में इन संस्थानों में पढने वाले छात्रों के लिए अपनी औपचारिक शिक्षा के लिए कराए जा रहे नियमित अध्ययन-अधअयापन कार्य अरुचिकर व अनौचित्यपूर्ण हो जाएंगे।
उनका कहना है कि शैक्षक संस्थानों को कोचिंग के माध्यम से छात्रों को हो रहे लाभों का आंकल यह दर्शाता है कि विभिन्न प्रयासों के अंतर्गत निम्न प्रयास निश्चित ही औपचारिक शिक्षण व्यवस्था को सशक्त करेंगे…
मूल शिक्षण संस्थानों में सुधार के उपाय 1-शैक्षणिक गतिविधियों में परीक्षा आधारित अध्ययन कराया जाना और उन्हें सतत् रूप से तात्कालिक आवश्यकताओं के अनुरूप परिमार्जित किया जाना 2-शिक्षकों के स्तर से अध्ययनरत छात्रों से सीधा संवाद स्थापित कर उनकी शैक्षिक आवश्यकताओं का आंकलन कर उसके अनुरूप कार्रवाई किया जाना 3- संस्थानों में अध्यापन कार्यों को समयबद्ध संचालित कराने के लिए इंटरनेट आधारित उपयुक्त शैक्षणिक प्रबंधन तंत्रो का प्रायोग कर पारदर्शिता, समयबद्धता और गुणवत्ता में सुधार लाना 4-छात्रों से समय-समय पर गोपनीय फीडबैक प्राप्त कर उसके अनुसार सुधारात्मक रार्रवाई 5- शैक्षणिक माहौल को स्वच्छंदता से बिना परिणामों के दबाव के संचालित कर अध्ययननुकूल बनाया जाना 6-छात्रों को शैक्षणिक तथा गैर शैक्षणिक गतिविधियों में प्रतिभाग के लिए प्रोत्साहित करते हए समय से सदुपयोग का मार्गदर्शऩ देना 7- वर्तमान डिजिटल युग में इंटरनेट पर उपलब्ध ज्ञानोपयोगी समाग्री का सदुपयोग कर स्वाध्याय तथा तकनीकि के औचित्यपूर्ण अनुशासित इस्तेमाल को प्रेरित करना 8- छात्रों को मानव मूल्यों के साथ पर्यावरणीय संवेदनाओं से ओत प्रोत करना 9-छात्रों को उनकी क्षमताओं के अनुरूप व्यक्तित्व का विकास करने के लिए मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक सहयोग उपलब्ध कराना
प्रो सिंह का कहना है कि समस्त औपचारिक शिक्षण व्यवस्था में समुचित गुणवत्ता व समर्पण के साथ अध्यापन कार्यों को संपादित न किए जाने से उत्पन्न हो रही परिस्थितियों के कारण समग्रता से निदान आवश्यक है ताकि इनके शनै-शनै खो रहे विश्वास को पुनर्स्थापित किया जा सके। समानांतर रूप से चल रही दो प्रकार की शैक्षणिक गतिविधियों के संचालन से शिक्षा प्रणाली के समस्त नीति निर्माताओं, नियंत्रकों व शिक्षकों के स्तर से परिस्थितियों का संपूर्णता से आंकलन व कार्रवाई समाजहित में होगी।
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