राहुल गांधी के नेतृत्व में पहली बार लोकसभा चुनाव में उतरी कांग्रेस अब काफी हद तक नेहरू और इंदिरा की लकीर को आगे बढ़ाती दिख रही है। पार्टी के घोषणा पत्र को उठाएं तो उसमें गरीबों पर फोकस किया गया है। युवाओं और छात्रों पर ध्यान दिया गया है तो महिलाओं की भी चिंता कहीं न कहीं नजर आती है। खांटी पुराने राजनीतिक विश्लेषको की मानें तो कांग्रेस में इस बार बहुत कुछ पुराना चावल नजर आ रहा है।
खास तौर पर यूपी की बात करें तो यहां तीन दशक से सियासी हाशिये पर चल रही कांग्रेस ने अपने परंपरागत वोटबैंक की वापसी के जरिए बेहत परिणाम देने की चाह में ही अपना दल (कृष्णा पटेल), जन अधिकार पार्टी (बाबू सिंह कुशवाहा) और महानदल से गठबंधन किया है। इरादा साफ है, कुर्मी, कुशवाहा, लोध, सैंथवार, सुनार, सचान, पाल जैसी जातियों को पार्टी की ओर आकर्षित करना। यहां यादवों से गुरेज साफ नजर आ रहा है। यहां बता दें कि अपना दल के जरिए कुर्मी तो जन अधिकार पार्टी के मार्फत मौर्य, कुशवाहा और शाक्य को साधने की रणनीति है। पार्टी इन तीनों दलों के साथ मिल कर पूरब से पश्चिम तक के अदर बैकवर्ड को साधती नजर आ रही है। पार्टी ने अब तक जो प्रत्याशी घोषित किए हैं यूपी में उसमें भी कुर्मी, कुशवाहा, लोध, सैंथवार, सुनार, सचान,पाल आदि जातियों को ही महत्व दिया गया है।
दरअसल राजस्थान हो या छत्तीसगढ़ इन दोनों ही राज्यों में हाल ही में मिली सफलता पार्टी के इन अदर बैकवर्ड और दलितों के चलते ही मिली है। वो भी तब जब इन दोंनों ही राज्यो में बसपा ने भी पूरे दमखम के साथ चुनाव लड़ा था। ऐसे में कांग्रेस इन दो राज्यों में अपनाई गई रणनीति को ही लोकसभा में भी अप्लाई करके चलने का मन बना चुकी है। इतना ही नहीं इस बार पार्टी ने जो स्टार प्रचारकों की सूची बनाई है उसमें राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलौत, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेष बघेल, ताम्रध्वज साहू, हार्दिक पटेल, राजाराम पाल को प्रमुखता दी गई है।
अब बता दें कि कांग्रेस ने अपनी रणनीति में परिवर्तन कैसे किया तो यहां बता दें कि 2014 का लोकसभा चुनाव पहला चुनाव था जिसमें अदर बैकवर्ड्स को साध कर ही भाजपा ने यूपी सहित पूरे देश में परचम लहराया था। इसके पीछे की सोच के बाबत राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि दलित हों या बैकवर्ड उसमें क्रीमी लेयर को ही आरक्षण का लाभ मिला और इसमें भी पिछड़ों में यादवों को। उनकी राजनीतिक हैसियत भी बढ़ी। यह हुआ कांशीराम की बसपा और मुलायम सिंह की सपा के राजनीतिक उदय के बाद। ऐसे में भाजपा और आरएसएस के थिंक टैंक को लगा कि जब तक मुलायम सिंह और मायावती के बोट बैंक से इतर के वोटबैंक को नहीं साधा जाएगा तब तक सत्ता हासिल करना सपना ही रहेगा। पार्टी ने उस पर काम किया और इसी के तहत नरेंद्र मोदी को फोकस कर बीजेपी ने 2014 का चुनाव लड़ा जिसकी परिणति सामने है।
ऐसे में कांग्रेस ने भी भाजपा की रणनीति जिस पर कभी कांग्रेस चला करती थी को फिर से अपनाने में ही भलाई समझी। कारण साफ है कि ये ऐसी जातियां हैं जिन्हें न राजनीतिक लाभ मिला है, न शैक्षिक न सामाजिक। लिहाजा इन्हें आसानी से अपनी ओर आकर्षित किया जा सकता है। इसी सोच के तहत कांग्रेस ने न्या योजना को लागू किया, उनके रणनीतिकारों को लगा कि अति पिछड़े हों या दलित ये ही दो वर्ग हैं जो आज भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। ये ही वो वर्ग है जिसकी मासिक आय 12 हजार रुपये से कम है। ये ही गांवों में मजदूरी करते है। खेतिहर मजदूर भी यही है। ऐसे में न्याय योजना से सबसे ज्यादा यही वर्ग प्रभावित होगा।
इसके अलावा बीते 05-10 सालों में जिस तरह से युवा मतदाताओं की तादाद बढ़ी है लिहाजा इन पर फोकस किए बगैर कोई पार्टी जिंदा नहीं रह सकती तो युवाओं के लिए रोजगार, स्वरोजगार के लिए तीन साल तक की छूट, हॉयर एजुकेशन के लिए लोन में ब्याज पर छूट जैसी योजनाएं लागू की गईं। मार्च 2020 तक 22 हजार सरकारी नौकरियों का शिगुफा छोड़ा गया। वहीं महिला सुरक्षा, महिला शिक्षा को भी घोषणा पत्र में जगह दी गई है। यहां भी अदर बैकवर्ड का खयाल रखा गया है। तभी तो प्रियंका हों या राहुल गांधी, आशा कार्यकर्ता, आंगनबाडी कार्यकर्ताओं पर ज्यादा फोकस कर रहे हैं। घोषणा पत्र में विज्ञान और तकनीकी का भी पुट है तो सेना का भी खयाल किया गया है। सीआरपीएफ, बीएसएफ जवानों को सेना के जवानों की तरह सुविधा की बात भी की गई है। कुल मिला कर इस बार कांग्रेस नेहरू-इंदिरा के पदचिन्हों पर चलती हुई ही दिख रही है।