नागरिकता क़ानून में संशोधन वक़्त की जरुरत अनुसार लिया गया फैसला उन्होंने भारतीय संस्कृति की परंपरा की खूबसुरतियों से लेकर वर्तमान समय में चल रहे सीएए एवं एनआरसी को लेकर चल रहे आंदोलन तक बेबाकी से चर्चा की। उन्होंने कहा की भारत ने तो हमेशा से ही प्रताड़ितों को खुले मन से स्वीकारते हुए शरण दिया है। नागरिकता क़ानून में संशोधन व उसको लेकर देश भर में मचे बवाल पर कहा कि यह वक़्त की जरुरत अनुसार लिया गया फैसला है, जो आज़ादी के दौर के हमारे तमाम नेताओं के वादे को पूरा करता है। उन्होंने कहा कि चाहे नेहरू हों, गांधी हों, पटेल या फिर अन्य नेता सबने बंटवारे को ना चाहते हुए स्वीकारा था। भविष्य के संशयों को देखते हुए उन लोगों ने तब ही कहा था कि हमारे दरवाज़े हमेशा सभी के लिए खुले रहेंगे। नागरिकता का यह कानून उनके इन्हीं वादों को पूरा करता है।
दुनिया के किस देश में वहां के नागरिकों का रजिस्टर नहीं है? नागरिकता के इस कानून को एनआरसी से जोड़कर जो भय बनाया जा रहा है उसे लकर मैं यही कहूंगा आज दुनिया के किस देश में वहां के नागरिकों का रजिस्टर नहीं है यह पता कर लीजिए। अन्य देशों के विस्थापित, प्रताड़ित मुसलमानों को सरकार नागरिकता कानून के अनुसार नागरिकता देती आई है और उसमें कोई बदलाव नही है। पिछले 5-6 बरसों में सरकार ने अन्य देशों के करीब 600 मुसलमानों को भारत की नागरिकता दी है।
विश्वगुरु कोई पदवी या उपाधि नहीं है, यह एक भूमिका है भारतीय संस्कृति और भारत को विश्वगुरु कहे जाने को लेकर बातचीत करते हुए उन्होंने बताया कि विश्वगुरु कोई पदवी या उपाधि नहीं है, यह एक भूमिका है जिसे भारत एक लंबे समय से निभाता आया है। पुरातन भारत में लोग अपने-अपने धर्मों के अध्ययन के लिए भारत आते थे चाहे ईसाई हों या इस्लाम सबने भारत से अपने धर्मों का सार समझा है। दुनिया के अलग-अलग हिस्से से अध्ययन के लिए लोग भारत आते थे, भारतीय संस्कृति के अध्ययन के लिए नहीं बल्कि अपने स्थानीय संस्कृति, परम्पराओ के अध्ययन के लिए। हमें वापस से अपनी क्षमताओं को ऐसा बनाना होगा हम विश्वगुरु की भूमिका पहले की तरह निभा पाएंगे।
इस्लाम से जुड़ी पुरानी पुस्तकों में भारत के बारे में शुरुआत में ही पढ़ने को मिलता है बताया कि इस्लाम से जुड़ी पुरानी पुस्तकों में भारत के बारे में शुरुआत में ही पढ़ने को मिलता है। अरब में भी इस्लाम की शिक्षा की प्रसार से जुड़ी भारत की भूमिका के बारे में इक़बाल ने लिखा है ‘मीर ए अरब को आई ठण्डी हवा जहां से’. हम इक़बाल का लिखा बड़े जोश से पढ़ते या गाते हैं कि ‘कुछ तो बात है हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जमां हमारा’। हमें ये सोचना चाहिए कि वह क्या बात है जिसने हमारी संस्कृति को आज तक जीवंत रखा है? जब हम इसपर सोचेंगे तब हमें समझ आएगा की हमने लगातार खुद को परिष्कृत किया, समयानुकूल बदलाव किये। हमें अपनी संस्कृति की समझ विकसित करनी होगी ‘पुराण’ वो नहीं जो पुराना है बल्कि पुराण तो वो है जो खुद को लगातर नवीनीकृत करता है। इससे हमें सीखने की जरुरत है। हमें है समझने की जरूरत है कि नफरत के सहारे आंदोलन तो चल सकता है देश नहीं।
आईएसआईएस के प्रति आकर्षण और जुड़ाव को केरल से जोड़ना गलत कार्यक्रम के द्वितीय सत्र में काशी मंथन के संयोजक मयंक नारायण सिंह ने आरिफ मोहम्मद खान से सवाल जवाब का सत्र चला। भारतीय राजनीति के विभिन्न दौरों की चर्चा करते हुए काशी मंथन के सोशल मीडिया हैंडल्स से आये सवालों को खान से पूछा। केरल के कुछ युवाओं का पिछले सालों में आईएसआईएस में बढ़े रुझान से जुड़े सवाल का जवाब देते हुए खान ने बताया की केरल की आबादी की तुलना में जो युवा आईएसआईएस से जुड़े वो नगण्य है। उनके आईएसआईएस के प्रति आकर्षण और जुड़ाव को केरल से जोड़ना भी गलत है क्योंकि उनमें से ज्यादातर युवा एक लंबे अरसे से केरल से बाहर विदेशों में रह रहे थे अत: उनके जुड़ाव और केरल का शायद ही कोई वास्ता है। इस सवाल का ही जवाब देने के क्रम में उन्होंने बताया कि केरल में जो संस्कृति है उसमें धर्म के आधार पर कोई विभेद नहीं है। उनके कपड़े, भोजन, भाषा यहां तक कि ओणम जैसे उनके त्यौहार उनकी साझा सांस्कृतिक विरासत है। एक राज्य के तौर पर देखें तो निश्चित तौर पर वहां की उच्च साक्षरता दर वहां ने नागरिकों के जीवन स्तर उनके सामाजिक उपक्रमों में झलकते हैं। चाहे उनके वृद्धाश्रम हो या अनाथाश्रम, अस्पताल हों या कॉलेज उनमें बिना किसी विभेद के एक कल्याणकारी राज्य की खूबियां झलकती हैं।
ये थे मौजूद
इस अवसर पर अथितियों व श्रोताओं का स्वागत काशी मंथन के संयोजक व काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संयुक्त कुलसचिव मयंक नारायण सिंह ने किया। विषय की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए चंद्राली मुख़र्जी ने कहा कि आधुनिक सन्दर्भों में देखें तो जनसंचार के ज्ञाता मार्शल मैक्लुहान ने बीसवीं सदी में ‘ग्लोबल विलेज’ की अवधारणा प्रस्तुत की है जबकि भारतीय संस्कृति में तो हम पुरातन काल से वसुधैव कुटुंबकम की बात करते आ रहे हैं। काशी मंथन के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि काशी मंथन का लगातार यह प्रयास है कि हम अपने देश, अपने समाज इसकी संस्कृति को समझने के लिए अपनी अंतर्दृष्टि विकसित करें। कार्यक्रम का संचालन अदिति सिंह व धन्यवाद ज्ञापन डॉ. सुमिल तिवारी ने किया। इस अवसर पर अजय सिंह, विशाल सिंह डॉ. पंकज सिंह, डॉ. हेमन्त गुप्ता, राज दुबे, गौरव, विक्रान्त कुश्वाहा, अनुजा रंजन, अनिशा, खुश्बु मिश्रा, रजित, देवाशीष गांगुली, डॉ. धीरेन्द्र राय आदि उपस्थित रहे। कार्यक्रम के संयोजक प्रोफेसर दिनेश चंद्र राय ने आरिफ मोहम्मद खान को शाल एवं स्मृति चिन्ह भेंट कर सम्मानित किया।