डॉ अजय कृष्ण चतुर्वेदीवाराणसी. इंसानी फितरत है निर्भय और बेफिक्र हो कर जहां-तहां जाना और बेबाकी से जीवन जीना। लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें डर लगता है, वह लगातार डरते हैं और यह डर ज्यादा होता है। ये डर उपहास का कारण तो बनता ही है, कभी-कभी यह डर जीवन के लिए खतरनाक भी हो जाता है। लेकिन इससे घबराने की जरूरत नहीं है, यह एक मानसिक बीमारी है और इसका इलाज मनोचिकित्सक के पास है। अगर आपको भी लगता है डर तो तत्काल मनोचिकित्सक से संपर्क करें। इससे निजात मिलना तय है।
बता दें कि पत्रिका ने इंसान के मनोविकारों को दूर करने के लिहाज से यह श्रृंखला शुरू की है, इसके तहत रोजाना एक न एक मानसिक बीमारी के बारे में बताया जा रहा है, बीमारी के साथ उसका निदान भी बताया जा रहा है। इस श्रृंखला की तीसरी कड़ी में पत्रिका ने बात की बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के मनोचिकित्सक प्रो संजय गुप्ता से। प्रस्तुत है बातचीत के संपादित अंश…
डर यानी फोबिया (Fear Or phobia) यह एक तरह से एंग्जाइटी डिसआर्डर है। इसमें किसी व्यक्ति, वस्तु, स्थान, भीड़ आदि से मनुष्य को भय लगता है। और यह डर ज्यादा और लगातार होता है। यह एक गंभीर मगर कॉमन बीमारी है। मसलन किसी को कुत्ता, बिल्ली, छिपकली, काक्रोच से डर लगता है तो किसी को ऊंचाई से। यह सब बीमारी के चलते होता है। इस संबंध में प्रो गुप्ता बताते हैं कि यह बीमारी तीन तरह की होती है..
1- स्पेसिफिक 2- सोशल 3- अगोरा 1- स्पेसिफिक डर में व्यक्ति को जानवर या ऊंचाई से डर लगता है। खून देख कर वह डर जाता है। खून यानी हत्या या मौत नहीं, कही थोड़ा सा भी कट जाए और रक्त स्राव होने लगे तो भी व्यक्ति डर जाता है। मनोचिकित्सा में यह माना जाता है कि बचपन में किसी के साथ कोई ऐसी घटना या क्रिया हुई हो जो उसके अंतः मन में समा जाए तो बड़ा होने पर भी उससे मिलती जुलती क्रिया होने पर उसे डर लगने लगता है। 2- सोशल फीयर के तहत व्यक्ति स्टेज आदि पर जाने से घबराता है। पहले तो वह स्टेज पर जाना नहीं चाहता, जोर-जबरदस्ती से उसे वहां तक पहुंचा दिया जाए तो वह कुछ बोल नहीं पाता। उसके हाथ-पांव कांपने लगते हैं, गला रुध जाता है। 3- अगोरा फीयर उसे कहते हैं जहां से आसानी से निकलना मुश्किल होता है, जैसे भीड़ या बाजार। ऐसे तमाम लोग होते हैं जो भीड़ में जाने से कतराते हैं। अकेले तो कतई नहीं जा सकते वो भीड़ में।
उन्होंने बताया कि कुछ ऐसे लोग होते हैं जो अकेले कहीं नहीं जाना चाहते। उनसे कोई काम कहा जाए तो वह साथी की तलाश करते हैं और साथी के न मिलने पर वो नहीं जाते। वो फोविक कंपैनियर की तलाश करते हैं। हालांकि यह बिना वजह का डर होता है।
ये भी पढें- Depression: सिर्फ मूड में बदलाव नहीं, है जानलेवा बीमारी, पुरुषों की तुलना में महिलाएं ज्यादा होती हैं पीड़ित प्रो गुप्ता ने बताया कि दरअसल इंसान के ब्रेन पार्ट में जो फीयर सर्किट होता है फ अएसंतुलन के चलते यह डर पैदा होता है। इसमें भी फ्री फ्रंटल कर्टेक्स और एमिग्डला कर्टेक्स जिम्मेदार है। इन दोनों की क्रियाओं के बाधित होने से डर पैदा होता है। उन्होंने बताया कि एक लिंबिक सिस्टम आधारित फीयर भी होता है जिसमें पुरानी यादों या परिस्थियों से जुड़ा डर पैदा होता है। ऐसा भावनात्मक संबंधों के चलते होता है। उन्होंने बताया कि हर तरह के डर की बीमारी दूर हो सकती है। लेकिन इसके लिए मनोचिकित्सक के पास जाना ही होगा। बताया कि इलाज के तहत दवा के साथ साइको थिरेपी की जाती है। इसमें निम्न तरह की थिरैपी होती है…
-कॉग्नेटिव बिहेवियर थिरैपी -डी सेंसटाइजेशन एंड री प्रोसेसिंग थिरैपी -प्रॉब्लम सॉल्विंग थिरैपी बताया कि इन थिरैपी में क्षमता और वस्तु को देखना, दिखाना होता है। जिस व्यक्ति को जिस चीज से डर लगता है वह चीज उसे बार-बार दिखाई जाती है। बार-बार वही चीज नजदीक से देखने से वह उसका आदी हो जाता है और उसका डर दूर होता है।
इसके अलावा सिस्मैटिक डी सेंसटाइजेशन व प्रोग्रेसिव मसक्यूलर रिलेक्शेसन से भी डर को दूर किया जाता है। इसके तहत पहले मरीज की मांसपेशियों को शिथिल यानी रिलैक्स किया जाता है। फिर उसे वह वस्तु दिखाई जाती है जिससे वह डरता है। इस विधि से 4-6 महीने में डर जाता रहता है। दर असल दवा के साथ इन थिरैपी को करने से ब्रेन सर्किट दुरुस्त होता है। इसके अतिरिक्त हिप्नो थिरैपी का भी इस्तेमाल किया जाता है।
प्रो गुप्ता ने बताया कि डर जैसी बीमारी बच्चों तक में हो सकती है। वैसे यह महिलाओं में पुरुषो की तुलना में दो गुना होती है। जानवरों से डर तो चार गुना तक ज्यादा होता है महिलाओं में। वहीं सोशल फोबिया लड़कियों में ज्यादा होता है जबकि सिचुएशन फोबिया से 9 फीसद पुरुष तो 17 फीसद महिलाएं पीडित होती हैं।
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