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वाराणसी

पॉलिटिक्स ज्वाइन करने के बाद सोनिया गांधी जैसी गलती नहीं दोहराएंगी प्रियंका गांधी, सोनिया की गलती से हारी थी कांग्रेस!

हालिया भाषणों से मिलने लगे प्रियंका के चुनाव लड़ने के संकेत।

वाराणसीMar 30, 2019 / 01:04 pm

Ajay Chaturvedi

सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी

सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी

डॉ अजय कृष्ण चतुर्वेदी

वाराणसी. सक्रिय राजनीति में पांव रखने के बाद से तीखे तेवर दिखाने वाली प्रियंका गांधी ने अपने हालिया बयानों में संकेत दिए हैं कि वह केवल संगठन ही नहीं देखेंगी बल्कि 17वां लोकसभा चुनाव भी लड़ सकती हैं। अमेठी-रायबरेली और रामनगरी अयोध्या के दौरे पर प्रियंका ने जिस तरह से पहले आम जनता से पूछा कि, ”वाराणसी से चुनाव लड़ जाऊं क्या?” फिर अगले ही दिन उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला बोलते हुए, कहा कि ताज्जुब है कि दुनिया की सैर करने वाले अपने लोगों की सुधि नहीं लेते। उन्होंने कहा कि यह जानकारी क्षेत्रीय जनता से हुई। लोगों ने बताया कि वह गांव में नहीं आते। इन सबसे पहले कांग्रेस अध्यक्ष यह कह कर कि यूपी में कुछ अप्रत्याशित करेंगे, पहले ही संकेत दे दिया है कि वह कोई बड़ा कदम उठाने जा रहे हैं।
प्रियंका के चुनाव लड़ने की बात कह, कार्यकर्ताओं में भरा जोश

इधर जब से प्रियंका गांधी ने वाराणसी से चुनाव लड़ने की बात कही है, बनारस के कांग्रेसियो में जबरदस्त उत्साह है। जिला कांग्रेस अध्यक्ष प्रजानात शर्मा और पूर्व विधायक अजय राय तो पहले ही प्रियंका को वाराणसी से चुनाव लड़ने को आमंत्रित कर चुके है। इसके लिए जिला व महानगर कांग्रेस कमेटी प्रस्ताव पास कर चुकी है। फरवरी में लखनऊ में हुई बैठक में प्रियंका के समक्ष वाराणसी के कांग्रेसी वाराणसी से चुनाव लड़ने का प्रस्ताव रख चुके हैं जिसे सुन उन्होंने मुस्कुरा कर कहा था कि देखा जाएगा। लेकिन अब जब उन्होंने खुद ही कह दिया कि, ”क्या मैं वाराणसी से चुनाव लड़ जाऊं” बनारस के कार्यकर्ताओं में जोश भर दिया है। आमजन के बीच भी उनका यह बयान चर्चा का केंद्र बन गया है।
प्रियंका के चुनाव लड़ने से पड़ेगा फर्क

प्रियंका के इस बयान पर राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि प्रियंका गांधी को चुनाव जरूर लड़ना चाहिए, वह भी बनारस से। इसके पीछे उनका तर्क है कि प्रियंका को पूर्वाचल का प्रभारी बनाया गया है। अगर प्रियंका बनारस से चुनाव लड़ती है तो उसका इम्पैक्ट केवल बनारस में ही नहीं पूरे पूर्वांचल पर पडे़गा। खास तौर पर बनारस के आस-पास की संसदीय सीटों पर। इतना ही नहीं इसका असर पूरे उत्तर प्रदेश के चुनाव पर भी पड़ सकता है। लिहाजा उन्हें चुनाव लड़ना ही चाहिए।
1998 में सक्रिय राजनीति में आने के बाद भी चुनाव से सोनिया ने रखा था परहेज
राजनीतिक विश्लेषक 1998 का जिक्र भी करते हुए कहते हैं कि प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में आने के बाद उनका चुनाव लड़ना जरूरी है। वो बताते हैं कि 1998 में सोनिया गांधी ने जब पहली बार सक्रिय राजनीति में आना स्वीकार किया था, तब पार्टी ने सत्ता में रहने के लिए किसी अन्य दल के साथ समझौता नहीं किया था जैसे इस बार। मई 1991 में लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान राजीव गांधी की निःशंस हत्या के बाद उस हत्याकांड की जांच को गठित जैन कमेटी की रिपोर्ट आ चुकी थी। पार्टी को भरोसा था कि राजीव गांधी की हत्या पर आई जैन कमेटी की रिपोर्ट का फायदा उसे जरूर मिलेगा। ऊपर से सोनिया गांधी के भी सक्रिय राजनीति में आने से दिग्गज से आम कांग्रेस नेताओं तक को नई संजीवनी बूटी मिल चुकी थी। लेकिन सोनिया ने चुनाव लड़ना भी मंजूर नहीं किया था। नतीजा यूपी में काग्रेस का खाता तक नहीं खुल पाया। मत प्रतिशत भी दहाई से नीचे पहुंच गया।
सोनिया के कांग्रेस से जुड़ने से कांग्रेस में था अदम्य उत्साह
गांधी परिवार के एक बार फिर कांग्रेस से जुड़ने पर भले ही दिग्गज कांग्रेसी उत्साह से भरे हुए थे। लेकिन उधर सभी विपक्षी पार्टियों ने चुनाव के लिए कांग्रेस को सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहराया और जैन कमेटी की रिपोर्ट पर भी कांग्रेस को मतदाताओं का साथ नहीं मिला। सही मायने में 12वां लोकसभा चुनाव बीजेपी की ताकत का मुजाहिरा बना। बीजेपी को छोड़ दें तो लगभग सभी पार्टियों के वोट शेयर गिरे। बीएसपी के वोट शेयर जरूर ढाई फीसदी बढ़े लेकिन पार्टी की सीटें घटकर 11 से 05 ही रह गईं।
लिखी गई भारतीय लोकतंत्र की नई इबारत
1998 के लोकसभा चुनावों में मतदाताओं ने भारत के लोकतंत्र की एक नई इबारत लिख दी थी। पहली बार कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी बज चुकी थी और उसे कड़ी टक्कर थर्ट फ्रंट से नहीं बल्कि बीजेपी से मिल रही थी। कोई भी पार्टी कांग्रेस के टक्कर की तभी मानी जा सकती थी जब वो न सिर्फ कांग्रेस से ज्यादा सीटें जीतें बल्कि देश भर में उसका जनाधार हो।
चुनावी वर्ष- कांग्रेस की जीत- मत प्रतिशत- जनसंघ/भाजपा- मत प्रतिशत
1998- 00- 6.02- 57- 36.49

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