बता दें कि अप्रैल ’84 में बसपा फिर अक्टूबर ’92 में सपा का जन्म हुआ। बसपा ने ’89 में लोकसभा का चुनाव लड़ा, लेकिन तब उसे महज दो सीटों से ही संतोष करना पड़ा। इसके बाद ’91 में तो केवल एक सीट ही मयस्सर हुई। लेकिन इसके बाद के सालों में बसपा ने बेहतरीन प्रदर्शन किया। यहां यह भी बता दें कि ’84 तक के चुनावों में कांग्रेस, जनसंघ/ भाजपा, माकपा और भाकपा के बीच ही संघर्ष हुआ करता था।
उधर समाजवादी पार्टी 1996 के आम चुनाव में पहली बार मैदान में उतरी और पहली ही दफा में 16 सीटों पर कब्जा कर यूपी की सियासत में हंगामा सा खड़ा कर दिया। इसके बाद 2014 के आम चुनाव के पहले तक सपा हर चुनाव में शानदार प्रदर्शन करती रही। कभी भी 20 से कम सीटें उसके पाले में नहीं आईं। ’80 के चुनाव में तो सपा ने यूपी की 80 में से 35 सीटें जीत कर राष्ट्रीय पार्टियों को बौना साबित कर दिया। लेकिन 2014 का वह लोकसभा चुनाव जिसमें पूरे देश में एक तरह से मोदी की सुनामी चली, उसमें सपा को पांच सीटों से ही संतोष करना पड़ा। अलबत्ता बसपा अपना खाता भी नहीं खोल पाई।
इतना ही नहीं सपा ने 2012 के विधानसभा चुनाव में भी जोरदार प्रदर्शन करते हुए प्रचंड बहुमत के साथ यूपी की सत्ता संभाली। इससे पहले 2007 में यही कारनामा बसपा ने कर दिखाया था।
अगर 2012 के यूपी विधानसभा चुनाव परिणामों पर नजर डालें तो कांग्रेस ने 355 प्रत्याशी मैदान में उतारे थे जिसमें से 240 अपनी जमानत तक नहीं बचा सके। वही हाल भाजपा का रहा जिसने 398 प्रत्याशी उतारे जिसमें से 229 की जमानत जब्त हो गई। इस तरह इन दोनों पार्टियों ने राष्ट्रीय दलों का जनाधार यूपी से लगभग खत्म कर दिया। आंकड़े बताते हैं कि आजादी के बाद के सालों में राष्ट्रीय दलों के जितने प्रत्याशी चुनाव जीता करते थे उसकी अनुपात में बाद के दिनों यानी इन क्षेत्रीय पार्टियों के उदय के बाद जमानत तक गंवाने लगे।