”अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते। पुत्रान् पौत्रांश्च सौख्यं च गृहाणार्घ्यं नमोस्तु ते।।” इस श्लोक से वट वृक्ष की प्रार्थना करें।
यथा शाखा प्रशाखाभिर्वृद्धोसि त्वं महीतले।।” सती सावित्री और सत्यवान की कथा
कहा जाता है कि मद्रगेश के राजा अश्वपति की पुत्री सावित्री का द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान से इसका विवाह हुआ था। विवाह के पहले नारदजी ने कहा था कि सत्यवान् सिर्फ सालभर जियेगा, किन्तु दृढव्रता सावित्री ने अपने मन से अंगीकार किए हुए पति का परिवर्तन नहीं किया और एक वर्ष तक पातिव्रत धर्म मे पूर्णतया तत्पर रहकर अंधे सास- ससुर की और अल्पायु पति की प्रेम के साथ सेवा की। अन्त मे वर्ष समाप्ति के दिन( ज्येष्ठ शुक्ल 15 को) सत्यवान् और सावित्री समिधा लाने को वन में गये। वहां एक विषधर सर्प नें सत्यवान् को डस लिया। वह बेहोश होकर गिर गया। उसी अवस्था में यमराज आए और सत्यवान के सूक्ष्म शरीर को ले जाने लगे। लेकिन तभी उन्हें सती सावित्री की तपस्या का ध्यान आया। सति सावित्री ने अपनी तपस्या और पतिव्रत धर्म से यमराज को प्रसन्न कर लिया। यमराज सावित्री की तपस्या के आगे झुकना पड़ा और सृष्टि के इतिहास में यह एक मात्र उदाहरण है कि मृत सत्यवान के शरीर में यमराज को प्राणवायु का संचार करना पड़ा। इतना ही नहीं उन्होंने सावित्री को सौ पुत्र होने तथा राज्यच्युत अंधे सास- ससुर को राज्य सहित दृष्टि प्राप्त होने का वर दिया।
वट सावित्री व्रत में में वट वृक्ष का बहुत खास महत्व होता है। कहा जाता है कि इस पेड़ में लटकी हुई शाखाओं को देवी सावित्री का रूप माना जाता है। पुराणों के अनुसार बरगद के पेड़ में त्रिदेवों – ब्रह्मा, विष्णु और महेश का वास होता है। इसलिए इस पेड़ की पूजा करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है।