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पारंपरिक जीवन जी रहे हैं गरासिया

ये आदिवासी हमारे प्राचीन सांस्कृतिक जीवन की धाती हैं और ये लोग अभी भी बिना राजकीय संरक्षण के अपना जीवन गतिमान किए हुए हैं

Jul 18, 2017 / 05:54 pm

जमील खान

Garasia

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राजस्थान के आदिवासी दक्षिणी क्षेत्रों में बहुतायत से पाये जाते हैं गरासिये। ये आदिवासी गरासिये आज भी अपने पारम्परिक जीवन को जी रहे हैं तथा वैज्ञानिक विकास के इस युग में भी इनका स्तर बहुत ही निम्न है। ये निरक्षर तथा जीविका के पुश्तैनी कार्य ही कर पाते हैं। ये आदिवासी हमारे प्राचीन सांस्कृतिक जीवन की धाती हैं और ये लोग अभी भी बिना राजकीय संरक्षण के अपना जीवन गतिमान किए हुए हैं। उदयपुर, जालौर, पाली व सिरोही के संभागों में अरावली पर्वत श्रृंखला की तराई में ये लोग बहुसंख्यक रूप में उपलब्ध हैं।

गिरासिया समाज में अभी भी मूलत: पितृ प्रधान व्यवस्था है तथा गाँवों में उम्र में बूढ़े व्यक्ति को अपने झगड़ों के निपटारे के लिए प्रधान चुना जाता है। इसके यहाँ ‘पटेल’ रूप में जाना जाता है। गरासिया स्वभाव से सीधे तथा अंधविश्वासी होते हैं। आधुनिक जीवन की चकाचौंध आज भी इन्हें नहीं छू पाई है और ये लोग पूर्ण सादगी से पारम्परिक जीवन को बिताते चले जा रहे हैं। पटेल ही गाँव का मुखिया तथा शासक होता है।

इनकी आवास व्यवस्था घास-फूस के झोंपड़े तथा कच्चे मकान हैं। घरों की पूर्ण जिम्मेदारी पुरूषों की है, परन्तु स्त्री भी परिवार केन्द्र धुरी के रूप में आर्थिक सम्बल प्रदान करने की दृष्टि से आजीविका में अपना हाथ बंटाती हैं। गरासिया मुख्य रूप से खेती तथा जंगलों से लकड़ी काटने का पेशा करते हैं इसके अलावा दुधारू पशुओं को भी इनके परिवारों में पाला जाता है।

गरासिया प्राचीन पारम्परिक जीवन के प्रति अत्याधिक उत्साही होते हैं यों तो ये अनेक पर्व-त्यौहार मनाते हैं परन्तु होली, दशहरा तथा मेला आदि में पूर्ण उत्साह से सम्मिलित होते हैं। ये लोग इनमें नाचते-गाते हैं तथा नये परिधान पहनकर अपने उत्साह का प्रदर्शन करते हैं। परस्पर प्रेम एवं सौहाद्र का माहोल उनकी मानवोधित उपलब्धि है तभी तो इनके झगड़े न्यायालयों की एवज समाज की पंचायत में ही निपटा लिए जाते हैं।

वैसे भी न्यून आवश्यकताओं के कारण जीवन संघर्ष इतना जटिल नहीं होगा तथा रोजी-रोटी की जरूरतें सद्भाव से पूरी करने का प्रयास करते हैं। ये लोग मिट्टी के बर्तनों में ही भोजन बनाते हैं तथा पेड़ों के चाँडे पत्तों में खाना परोसकर खा लेते हैं। शान-शौकत दिखावा से ये लोग कोसों दूर हैं। यौन संबंधों के मामलें में ये आदिवासी अपनी पत्नी के साथ कठोरता से पेश आते हैं। जबकि बहन व माता के मामलों में उदासीनता व नरमी का रूख अपनाते हैं।

यदि पत्नी के साथ कोई पर पुरूष यौन संबंध करना चाहे तो ये लोग मरने-मारने को तैयार हो जाते हैं। वैसे ये आदिवासी गरासिया अपनी संतान की शादी के मामले में चिंतित नहीं रहते हैं। सामान्य रूप से प्रेम विवाह का प्रचलन होने से दहेज व बाल-विवाह जैसी कुरीतियों से बचे रहते हैं। ये लोग दहेज के रूप में कुछ नहीं माँगते तथा युवा होने के बाद ही विवाह करते हैं, क्योंकि माता-पिता की जिम्मेदारी नहीं होती कि वे ही अपने बच्चों का विवाह करेंगे।

पाली जिले में गोरियाँ गाँव है। वहाँ बैषाख माह की कृष्ण पक्ष की सप्तमी को गोरियाँ मेला आयोजित होता है। इस मेले में इस संभाग के आदिवासी गरासिया दूर-दूर से आकर इक_े होते हैं। इसी मेले म ेंजोड़े अपना साथी तय करते हैं। रात्रि को आठ-नौ बजे से ये लोग नाचते-गाते हैं।

झूम-झूमकर मस्त हो जाते हैं तथा तीन-चार घण्टें के इस आयोजन में एक-दूसरे को आकृष्ट करते हैं। जब आपसी सहमति लड़के व लड़की में हो जाती है तसे वह उसे लेकर विहान बेला से पूर्व ही पहाड़ी की तलहटी में गुफाओं आदि में ले जाता है। प्रेम की प्रगाढ़ता स्वरूप बहुत ही महकदार-स्वादिष्ट मसाले वाला पान दूल्हा अपनी दुल्हन को भेंट करता है। इसके बाद ये लोग पति-पत्नी बन जाते हैं।

दो-चार पाँच दिन तक वे जीवन का आनन्द करते हैं तथा यौन सुख लूटते हैं इस मध्य में वहीं उपलब्ध साधनों से खान-पान की व्यवस्था भी कर लेते हैं। जब लड़की के पिता को पता चलता है कि अमुक का लड़का उसकी लड़की को भगा ले गया है तो वह लड़के पिता के पास शिकायत लेकर पहुँचता हैं।

पंचायत बुलाई जाती है और लड़के के पिता पर दण्डस्वरूप जैसी उसकी स्थिति है 50 रूपये से लेकर 250 तक जुर्माना कर दिया जाता है। जो लाजिमी तौर पर लड़के के पिता को लड़की के पिता को चुकाना अनिवार्य होता है। चार-पाँच दिन बाद जब लौटता है तो लड़के का पिता समाज को दावत पर बुलाता है इस दावत में मक्का की रोटी, चटनी, छाछ, कुछ मामलों में माँस भी परोसा जाता है। यह विवाह की पुष्टि होती है।

फिर पिता अपने लड़के को कुछ जमीन व पशु प्रदान कर स्वंतत्रतापूर्वक जीवन जीने की राह बताता है। वह अपनी गृहस्थी का बोझ स्वयं उठाता है तथा विवाह बाद अपना खर्च स्वयं चलाता है। उसके रहने का झोपड़ा भी पृथक बना दिया जाता है कुछेक मामलों में गोरिया मेलों में जब वर कन्या को ले जाता है, तो वह घर में भी जा छिपता है।

फिर लड़की वाले अपने आदमी भेजकर पता लगवाते हैं कि उनकी लड़की किस घर में छुपी हुई है। जब पता चल जाता है तो वे लोग लड़के वाले के घर पथराव करते हैं तब तक गाँव का पटेल आ जाता है तथा 12 बछड़ों की भेंट के बाद सुलह करा देता है। समगौत्र में इनके यहाँ भी विवाह नहीं होता। यदि कोई समगोत्र में विवाह रचाता है तो वह दण्ड का भागीदार होता है तथा नये विवाह का इंतजार करता है। पहले वाला विवाह तोड़ दिया जाता है।

इस तरह का प्रेम विवाह 80 प्रतिशत तक प्रचलित है, जबकि 20 प्रतिशत विवाह पूरी तरह ‘मैनेज’ करके ब्राह्मण पद्धति से अग्नि के समक्ष किया जाता है। इनके विवाह पूर्ण सफल होते हैं तथा पूरे जीवन निभाये जाते हैं।

चन्द्रकान्ता शर्मा

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