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श्रममूल्य के संकट से जूझती घरेलू कामगार महिलाएं

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक भारत में करीब छह करोड़ घरेलू कामगार महिलाएँ हैं।

Mar 20, 2018 / 12:00 pm

सुनील शर्मा

women labour in india

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– उपासना बेहार

घरेलू काम दुनिया के सबसे पुराने रोजगार के साधनों में से एक रहा है। सूखा, खेती में हानि, रोजगार के विकल्प का ना होना, विकास के नाम पर जमीन का अधिगृहण, विस्थापन, दलित वर्ग का उत्पीड़न, चिकित्सा, पानी इत्यादि मूलभूत सुविधाओं का अभाव जैसे विभिन्न कारणों के चलते गाँव से लोग शहर की ओर पलायन करने को मजबूर हो जाते हैं। पलायन करने वाले ये लोग ज्यादातर गरीब और वंचित तबकों से होते हैं और इन्हें शहर में असंगठित क्षेत्र में ही काम मिलता है। मंहगाई और कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण महिलाओं को भी काम करना पड़ता है। महिलाओं में शिक्षा और कौशल की कमी के कारण इनके लिए सबसे आसान आजीविका घरेलू काम ही होता है और वे इसे करने को मजबूर होती हैं।
घरेलू कामगारों द्वारा 35 तरह के कार्य संपादित किए जाते हैं। मोटे तौर पर देखें तो बागवानी, बच्चों को संभालना, खाना पकाना, घर की साफ-सफाई, कपड़े-बर्तन धोना, बीमार व वृद्धों की देखभाल, वाहन चलाना, बाहर से सामान खरीदना इत्यादि काम करते हैं। हालांकि इनमें से कुछ काम पुरुष घरेलू कामगारों द्वारा किये जाते हैं। बाकि सभी काम ज्यादातर महिला घरेलू कामगार द्वारा किया जाता है।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक भारत में करीब छह करोड़ घरेलू कामगार महिलाएँ हैं। वही नेशनल सैम्पल सर्वे 2011-12 के अनुसार देश में 2,38,92,791 घरेलू कामगार महिलाऐं है जिसमें से 4,05,831 महिलाऐं गाँव में और 21,79,403 शहर में कार्यरत् हैं। सन् 1999-2000 और 2004-05 के मध्य के 5 वर्षों में ही घरेलू काम करने वाली महिलाओं की संख्या में 22.5 लाख की बढ़ोतरी हुई है। इस कारण महिलाओं की कार्यशील आबादी में इनका हिस्सा 11.8 प्रतिशत से बढ़कर 27.5 प्रतिशत हो गया है।
घरेलू कामगार महिलाओं को घर और कार्यक्षेत्र दोनों जगह कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। एक तरफ घर पर उन्हें खुशगवार माहौल और सहयोग नही मिलता है तो दूसरी ओर कार्यस्थल में भेदभाव और असुरक्षा की स्थिति होती है। घरेलू कामगार महिलाओं के प्रति समाज का नजरिया अच्छा नही होता है। इनके काम को गरिमापूर्ण नही माना जाता है एवं इनके काम को अहमियत नही दी जाती है और उन्हें कामगार की जगह नौकर माना जाता है। घरेलू कामगार स्त्रियों के श्रम को पूरी तरह से अनदेखा किया जाता है।
ज्यादातर घरेलू कामगार महिलाऐं दलित और पिछड़े वर्ग समुदाय की होती हैं इस वजह से जातिगत भेदभाव का सामना करती हैं और कार्यस्थल में इनके लिए अलग से बर्तन होते हैं जिन्हें वे खुद ही धो कर अलग रखती हैं। घरेलू कामगार महिलाओं को नियोक्ता समय समय पर बासी भोजन, फटे-पुराने कपड़े, जूते, चप्पल आदि सामान देते हैं लेकिन यह उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचता है पर उसे नियति मान कर चुपचाप सहन कर जाती हैं। अगर कार्यस्थल में इनके साथ यौन उत्पीड़न की घटनाऐं हो जाये तो समाज भी इन्ही को दोषी मानता है।
घरेलू कामगार महिलाए पूरी राशि परिवार में लगा देती हैं, फिर भी परिवार के निर्णयों में ज्यादातर कोई भागीदारी नही होती है। इन महिलाओं को घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ता है। इन महिलाओं के पति अपनी मजदूरी से शराब का सेवन करते हैं इससे पूरे घर को चलाने की जिम्मेदारी इन महिलाओं के कंधे पर आ जाती है। ये महिलाऐं जब उम्र-दराज हो जाती हैं तो इनके लिए कोई सामाजिक, आर्थिक सुरक्षा नही होती है। घरेलू कामगार महिलाओं के संगठन नही है। इस कारण इनके साथ कोई अन्याय हो तो कोई लड़ने वाला नही होता है। संगठन के अभाव में इनकी माँगें सार्वजनिक नहीं हो पाती हैं।
घरेलू कामगार महिलाए को रोज लगभग 14 से 18 घंटे काम करती है जिससे थकान, जोड़ों में दर्द, पीठ दर्द, कमर दर्द होता है। काम के दौरान इनके हाथ ज्यादातर समय डिटरजेंड के पानी के सम्पर्क में रहते है जिससे हाथों की ऊंगलियों में घाव हो जाते हैं, ठंडे पानी के उपयोग से उंगलिया अकड़ जाती है, हड़ड़ियों में ठंड भर जाता है। कार्यस्थल में इन्हें शौचालय इस्तेमाल करने नही दिया जाता है जिसके कारण वे कम पानी पीती हैं इससे अक्सर इनके पेशाब के रास्ते खुजली और इन्फेकशन की संभावना होती है। कम पानी पीने की वजह से आगे चल कर किड़नी में प्रभाव पड़ता है।
कई बार कार्यस्थल में इनके साथ हिंसा, यौन शोषण, दुर्व्यवहार, अमानवीयता व्यवहार होता है। ह्यूमन राइट्स वॉच की एक शोध के मुताबिक भारत में घरेलू नौकरों को भयंकर उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। महिला और बाल विकास विभाग ने फरवरी 2014 में राज्यसभा में बताया कि देश में घरेलू कामगार महिलाओं के साथ हिंसा के मामले बढ़ें हैं और वर्ष 2010 से 2012 के बीच देश में घरेलू कामगारों के प्रति अपराध के 10503 केस दर्ज हुए हैं जिसमें 2012 में 3564, 2011 में 3517 व 2010 में 3422 केस दर्ज हुए। वही मध्यप्रदेश में 2010 से 12 के बीच 183 मामले दर्ज हुए। अगर किसी घर में चोरी हो जाये तो सबसे पहला शक इन्ही पर किया जाता है। काम के दौरान इन स्त्रियों को अन्य कामगारों की तरह छुट्टी, मातृत्व अवकाश, बीमारी की दशा में उपचार, क़ानूनी सुरक्षा जैसी कोई सुविधा हासिल नहीं होती है। कार्यस्थलों में अगर कोई दुर्घटना हो जाये तो नियोक्ता उसके इलाज का खर्चा नही देते हैं।
देश की अर्थव्यवस्था में घरेलू कामगारों के योगदान का कभी कोई आकलन नहीं किया जाता है, इन्हें कामगार का दर्जा नही दिया जाता है। इस वजह से उनका कोई एकसार और वाजिब मेहनताना ही तय नहीं होता है। घरेलू कामगार महिलाओं को जो वेतन मिलता है वो देश में निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से भी कम होता है। प्लेसमेन्ट एजेंन्सियों द्वारा भी इनको झूठे और बड़े बड़े वादे किये जाते हैं लेकिन कई बार इनका आर्थिक और दैहिक शोषण करते हैं।

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