टूटते-जुड़ते रिश्तों का यह दौर
प्रेम ख़त्म होने पर रिश्ते निभाना कहाँ तक ठीक
– आराधना मुक्ति
“जब कोई दवा लंबे समय तक चलती रहती है, तो उसको अचानक बंद करने के परिणाम खतरनाक हो सकते हैं और मरीज़ पहले वाली स्थिति में जा सकता है. लंबे समय से इस्तेमाल की जा रही दवाओं की खुराक क्रमशः कम करते हुए उन्हें धीरे-धीरे खत्म करना चाहिए. पुराने रिश्ते भी ऐसे ही होते हैं. उन्हें अचानक से नहीं तोड़ना चाहिए. इससे चोट लग सकती है.” कोई समझा रहा था मुझे. और मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि ये “धीरे-धीरे” वाली अवधि कितनी लंबी होनी चाहिए? एक महीने, दो महीने या एक साल? और तब तक क्या किया जाय? उस रिश्ते को क्या नाम दिया जाय- “इट्स काम्प्लिकेटेड”?
ये ‘इंटरपर्सनल रिलेशंस’ कितना परेशान करते हैं। हमारे देश में लोगों की ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा समाज के रस्मो-रिवाज से उलझने और आपसी सम्बन्धों को सुलझाने में ‘बरबाद’ हो जाता है. इसीलिए हम इतने पिछड़े हुए हैं. क्या पश्चिमी समाज में लोग प्यार नहीं करते? करते ही हैं. लेकिन दो लोगों के आपसी सम्बन्धों के पचड़े में समाज नहीं पड़ता. पता नहीं क्या होता है और क्या नहीं होता? लेकिन अपने यहाँ दो लोगों की रिलेशनशिप उनकी ज़िंदगी पर कोई असर डाले या न डाले, औरों की बदहजमी का कारण ज़रूर बन जाती है. और उसका असर रिलेशनशिप पर ज़रूर पड़ता है. नतीजा- काम्प्लिकेशन…
मैं आजकल इस बात पर विचार कर रही हूँ कि कोई भी प्रेम-सम्बन्ध (वर्तमान भाषा में ‘रिलेशनशिप’) खत्म कैसे किया जाय? क्या प्रेम खत्म होने के बाद हमें अपने साथी के बारे में ज़रा सा भी नहीं सोचना चाहिए. हो सकता है कि एक तरफ़ से प्रेम खत्म हो गया हो, पर दूसरे का क्या? लेकिन एक के मन से प्रेम खत्म हो जाने पर सिर्फ दूसरे का मन रखने के लिए रिश्ते को निभाते जाना भी ठीक है क्या? हम अक्सर कई जोड़ों को ऐसा करते हुए देखते हैं. क्यों?
दरअसल, हमारे समाज में प्रेम-सम्बन्ध ‘जोड़ना’ जितना बड़ा पाप समझा जाता है, उसे ‘तोड़ना’ उससे भी बड़ा पाप. हमें रिश्तों को ‘निभाने’ के बारे में तो सौ बातें सिखाई जाती हैं, लेकिन उन्हें खत्म करने के बारे में नहीं बताया जाता. और कहीं ये प्रेम-सम्बन्ध है, तब तो जन्म-जन्मांतर का नाता मान लिया जाता है. ‘एक हिंदू लड़की सिर्फ एक बार अपना पति/प्रेमी चुनती है’ ये डायलाग बचपन से फिल्मों के माध्यम से हमारे सब-कांशस दिमाग में इस तरह बिठा दिया जाता है कि हम रिश्ता टूटने की कल्पना से ही कांप उठते हैं. अक्सर टीनेजर्स रिश्ते के टूटने पर अपना आत्मविश्वास खो उठते हैं, और कभी-कभी तो बात आत्महत्या तक पहुँच जाती है.
खैर, मैं ये बात नहीं मानती कि प्रेम-सम्बन्ध जन्म-जन्मांतर के लिए होते हैं. ये दो संवेदनशील व्यक्तियों के अस्तित्व से जुड़ा प्रश्न है, इस पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है.
मुझे लगता है कि हमें अपने बच्चों, खासकर टीनेजर्स को इस बात के लिए तैयार करना चाहिए कि अगर रिश्ते बनते हैं, तो खत्म भी होते हैं. हमें रिश्ते निभाने चाहिए, लेकिन सिर्फ ‘निभाने के लिए’ नहीं. अगर प्यार होता है, तो कोई भी किसी रिश्ते को नहीं तोड़ सकता, चाहे वो दोस्ती का रिश्ता हो या प्रेम का या कोई और, लेकिन अगर प्यार नहीं बचा है, तो सिर्फ नाम के लिए रिश्ते निभाने की कोई ज़रूरत नहीं. और न ही ये सोचने की ज़रूरत कि यदि रिश्ता टूट गया, तो हम खत्म हो जायेंगे. दुःख, तो हर रिश्ते के टूटने पर होता है, लेकिन उसे इस हद तक नहीं जाना चाहिए कि इंसान अपनी ज़िंदगी ही दाँव पर लगा दे. कोई भी चीज़ ज़िंदगी से ज़्यादा कीमती नहीं. इस विषय में आपके क्या विचार हैं?
– ब्लॉग से साभार
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